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________________ नियमसार-प्राभृतम् "जं मया दिस्सवे एवं तं ण आणादि सम्यहा। जाण गं दिस्सवे णं तं तम्हा अपेमि केण हं ।।२।।" तथैव श्रीपूज्यपादाचार्यदेवैरपि-- ___ "अचेतनमिवं दृश्यमदश्यं चेतनं ततः। क्य रूष्यामि व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः"२ १४६।। यत्किमपि मया दश्यते तदचेतनदेन न जानाति सस्था किमपि, यच्च जायक चेतनद्रव्यं तत्कदाचिदपि न दृश्यते, पुनः केन सार्धमहं संलापं करोमि ? ततः भौनेन स्थित्वा स्वशुद्धात्मैव ध्यातव्य इति । किञ्च-- "अस्मिन्नाविनि महत्यविवेकनाथे, वर्णाविमान्नटति पुगल एव नान्यः । रागाविपुगलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूतिरयं घ जीव ॥४४॥" अनाधिकालीनमहत्यामस्यामविवेकरूपनाट्यशालायां सदैव अयं पुगल एप जो रूप मुझे दिख रहा है, वह सर्वथा कुछ भी नहीं जानता है और जो जानता है वह दिखता नहीं है, इसलिए मैं किसके साथ वार्तालाप करूँ ! यही बात पूज्यपाद देव ने भी कही है जो भी दिख रहा है वह सब अचेतन है और चेतन दिखने योग्य नहीं है । इसलिए मैं किसपर तो रोष करूं और किस पर प्रसन्न होऊँ ! अतः मैं मध्यस्थभाव को धारण करता हूँ । अभिप्राय यही हुआ कि जो कुछ भी मुझे दिख रहा है, वह अचेतन होने से सर्वथा कुछ भी जानता नहीं है और जो जानने वाला चेतन द्रव्य है वह कदाचित् भी दिखता नहीं है, पुनः किसके साथ मैं वार्तालाप करूँ ! इसलिए मौन से स्थित होकर अपनी आत्मा का ही ध्यान करना चाहिये । दूसरी बात यह है इस अनादिकालीन अविवेकरूप नाट्यशाला में वर्णादिवाला पुद्गल ही नाच रहा है, अन्य नहीं। यह जीव तो रागादि पौद्गलिक विकारों से विरुद्ध, शुद्ध, चैतन्य धातुमय, मूर्तिरूप है । - शंका-इस अनादिकालीन अविवेकरूपी नाट्यशाला में हमेशा यह पुद्गल ही नृत्य करता है, पुनः जीव क्यों नहीं नृत्य करता ? १. मोक्षपाहुइ । २. समाधितंत्र । ३. समयसारकलश ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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