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________________ नियमसार-प्राभृतम् ध्यात्मभावनां भावयन्तः स्वपदानुकूलपूजादानशीलोपवासनियमान् कुर्वन्तो जिनकल्पिमुनीनामभावे स्थविरकल्पिमुनीनां भक्ति विवध्युः, अहंबरूपधरान् दृष्ट्वावमानं मा कुर्युः, एष एव मोक्षमार्गो न चान्यः कश्चित् । ननु यदि स्वशमुनीनां लक्षणरूपाऽध्यात्मावस्थाद्यत्वे न संभवति, तर्हि अस्याथ्यात्मग्रन्थस्य प्रणयनं पठनपाठनश्रवणादिकं या कथं क्रियते ? सत्यमेतत्, परमिष्टानिष्टयियोगसंयोगरोगशोकादिभ्यः संतप्तमनसां श्रायकाणामप्यध्यात्मभावनयव मनसि शांतिर्भवितुं शक्यते, न चान्यः कैश्चिवप्युपायैः। अतो यदि अध्यात्म पठित्वार्थस्यानर्थ न कुर्वोरन् तर्हि गुण एव न दोषः । अन्यम श्रेण्यारोहणशुक्लध्यानप्रायोपगमनसंभ्यासाक्योऽयद्यत्वे न संभवन्ति, तथापि तेषां व्याख्यानमागमें दृश्यते । और श्राविकायें भी अध्यात्म भावना को भाते हुये अपने पद के अनुकूल पूजा, दान, शील और उपमाल , नियमक क्रियाओं को करते हुये जिनकल्पी मुनियों के अभाव में स्थविरकल्पी मुनियों की भक्ति करें, अर्हतरूप के धारी दिगम्बर मुनियों को देखकर अपमान न करें, यही मोक्षमार्ग है । अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है। शंका-यदि स्ववश मुनियों के लक्षणरूप अध्यात्म अवस्था आज कल सम्भव नहीं है, तो फिर इस अध्यात्म ग्रंथ की रचना अथवा इसको पढ़ना-पढ़ाना और सुनना आदि क्यों किया जाता है ? समाधान-आपका कहना ठीक है, परन्तु इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, रोग, शोक आदि से पीड़ित हुये श्रावकों को भी अध्यात्म भावना से ही मन में शान्ति होना शक्य है, अन्य किन्हीं उपायों से नहीं। इसलिये यदि अध्यात्म ग्रन्थ को पढ़कर उसके अर्थ का अनर्थ न करें, तो गुण ही है न कि दोष । दूसरी बात यह है कि उपशम या क्षपक श्रेणी आरोहण, शुक्लध्यान, प्रायोपगमन, संन्यास आदि भी आज कल सम्भव नहीं हैं, फिर भी उनका व्याख्यान आगम में देखा जाता है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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