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________________ ५४८ नियमसार-प्राभृतम् बुद्धय तत् त्यक्तव्यम् । अत्र पुनः पुनस्तदेव तत्सदृशं च वाक्यं दृश्यते तत्तु अध्यात्मग्रन्थत्वाद् नास्ति पुनरुक्तिदोषः । प्रत्येकगाथादीका नयविभागेन विषयः स्पष्टीकृत आसीत् । यद्यप्यस्मिन् ग्रंथे निश्चयनयप्रधानत्वं तथापि गुणस्थानेषु तत्तद्विषयं घटयित्वा व्यवहारनयप्रधानत्थेन तात्पर्यार्थः प्रदर्शितः । किचाद्यत्वे संयताः संयतिकाश्च व्यवहारक रणचरणयोनिष्पन्ना भवेयुस्तत्र शैथिल्यं मा गच्छेयुरेष एव ममाभिप्रायः । यतो निश्चयनयाश्रितमात्मानमलभमानानां व्यवहारक्रियासु प्रमादः स्वार्थहानये भवति । उक्तं च "णिय मालबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता । णासंति चरणकरणं वाहरिचरणालसा केई ॥ अतोऽस्य ग्रन्थस्य पठितारः श्रोतारो वा विद्वांसः श्रावकाः श्राविकाश्चाप्यवे ही और उस सदृश वाक्य दिखते हैं, अध्यात्म ग्रन्थ होने से वह पुनरुक्ति दोष नहीं हैं । प्रत्येक गाथा की टीका में नयविभाग से विषय खोला गया है । यद्यपि इस ग्रन्थ में निश्चयनय प्रधान है, फिर भी गुणस्थानों में उस उस विषय को घटाकर व्यवहारनय की प्रधानता से तात्पर्य अर्थ दिखलाया गया है । इसमें आज कल के aft और आर्यिकायें व्यवहार क्रिया और चारित्र में निष्पन्न हो जावें, उसमें शिथिलता न लावें, यहीं मेरा अभिप्राय है, क्योंकि निश्चय नय के आश्रित आत्मा को प्राप्त न करते हुये व्यवहार क्रियाओं में प्रमादी हो जाना अपने प्रयोजन की हानि के लिये ही होता है । कहा भी है " निश्चय से निश्चय को नहीं समझते हुये निश्चय का आलम्बन लेने वाले कोई व्यवहार चारित्र और क्रियाओं में आलसी होकर उन चारित्र और क्रियाओं को नष्ट कर देते हैं ।" इसलिये इस ग्रन्थ के पढ़ने वाले या सुनने वाले विद्वान् लोग तथा श्रावक १. पंचास्तिकाय गाथा १७२ की अमुचंद्रसूरि की टीका में ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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