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नियमसार-प्रामृतम् भथ तावच्छास्त्रस्यादौ गाथायाः पूर्वान निविध्वशास्त्ररिसमाप्त्यादिहेतुना मजलामिष्टदेवतानमस्कारमुत्तरार्धेन प नियमसार अन्यव्याख्यानं चिकीर्ष वः श्रीकुन्दकुन्द देवाः सूगिदमवतारयन्ति
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं । वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं ॥१॥
'णमिऊण' इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । णमिऊण-नत्वा । के ? वीरं-अन्तिमतीर्थकरं । कथभूत ? जिणं-जिनं । पुनरपि कथंभूतं ? अणंतबरणाणदसणसहावं-अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभार्य । एवं पूर्वार्थेन नमस्कारं कृत्वापरार्धन प्रतिज्ञां कुर्वन्ति । वोच्छामि-वक्ष्यामि । कं ? णियमसारं-नियमसारं । कथंभूतं ? केवलिसुदकेवलिभणिदं-केवलिश्रुतकेवलिभणितं इति क्रियाकारकसम्बन्धः ।
इतो बिस्तर:-+वि विशिष्टा ई लक्ष्मीः अन्तरङ्गऽनन्तचतुष्टयविभूतिबहिरङ्गसमवसरणाविरूपा च सम्पत्तिः, तां राति ददातीति वीरः । अथवा विशिष्टेन शास्त्र की पूर्णता आदि हेतु से मंगल के लिये इष्ट देवता को नमस्कार करते हुए और गाथासूत्र के उत्तरार्ध द्वारा नियमसार ग्रन्थ के व्याख्यान को करने की इच्छा रखते हुए श्रीकुंदकुददेव प्रथम गाथासूत्र को अवतरित करते हैं
__ अन्वयार्थ-(अणंतवरणाणदंसणसहाव) अनंतवर ज्ञान दर्शन स्वभाववाले (जिणं वीर) जिन वीर को (णमिऊण) नमस्कार करके (केवलिसुदकेवलोभणिद) केवली श्रुतकेवली द्वारा कहे गये (णियमसार) नियमसार ग्रन्थ को (बोच्छामि) कह गा।
स्याबादचन्द्रिका टोका-'जमिऊण' इत्यादि गाथा का पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं । नमस्कार करके । किनको ? वीर को-अन्तिम तीर्थकर को। वे केसे हैं ? जिन हैं। पुनः कैसे हैं ? अनंतवर ज्ञानदर्शन स्वभावी हैं। इस प्रकार गाथा के पूर्वार्ध से नमस्कार करके गाथा के उत्तरार्ध से प्रतिज्ञा करते हैं। कहगा | किसको ? नियमसार को | यह कैसा है ? केवली और श्रुतकेवली द्वारा कथित है । इस तरह यहाँ क्रियाकारक संबंध हुआ।
अब इसका विस्तार करते हैं1/'वि' विशिष्ट 'ई' लक्ष्मी, अर्थात् अंतरंग अनंत चतुष्टय विभूति और बहिरंग समवसरण आदि संपत्ति, यही विशेष लक्ष्मी है। इसको जो देते हैं वे 'वीर' हैं । अथवा जो विशेष रीति से 'ईते' अर्थात् जानते हैं-सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष करते हैं, वे वीर हैं । अथवा बीरता करते हैं-शूरता करते हैं—विक्रमशाली हैं