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________________ अथ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः नमोऽस्तु श्रीगणधरदेवेभ्यो द्रव्यभावप्रतिक्रमणमयसर्वविघ्नहन्तृसर्वमंगल. कर्तृभ्यः इन्द्रभूतिनामधेयधोगौतमस्वामिभ्यः । __ अथ मावहारप्रतिक्रमण विभाभावामश्चतिक्रमणनामा पंचमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टादशसूत्रेषु "णाहं णारयभावो"-इत्यादिगाथासूत्रमादि कृत्वा पंचसूत्रः परभावस्य कृतकारितानुमोदनैः कर्तृत्वं निराकृतं वर्तते । पुनः "एरिसभेदभासे" इत्यादिनकसूत्रेण प्रतिक्रमणहेतुमाख्याय, "मोत्तूण वयणरयणं" इत्याविसप्तगाथासूत्रैः रागादिभावविराधनानाधारोन्मार्गशल्यभावागुप्तिभावानादिभ्यः आत्मानमपसार्य शुद्धोपयोगलक्षणे परमार्थप्रतिक्रमणे तमेव स्थापयति । तदनुचिरकालात् भावितान् भावान् स्याजयित्वा अभाविते भाये स्थापनार्थ "मिच्छत्तपहुविभावा" इत्यादिके द्वे गाथासूत्रे स्तः, तत्पश्चात् शुद्धात्मध्यानमेव प्रतिक्रमणम्-इति कथनमुख्य इन्द्रभूति नाम के श्रीगौतम गणधरदेव के लिए 'नमोऽस्तु' होवे । जो (श्रीगौतम गणधरदेव) द्रव्य-भावप्रतिक्रमणस्वरूप हैं, सर्वविघ्नों का नाश करने वाले हैं और सर्वमंगल को करने वाले हैं । अब व्यवहार प्रतिक्रमण के बिना असंभवी ऐसा निश्चय प्रतिक्रमण नाम का यह पाँचवाँ अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है। उसमें अठारह गाथासूत्र हैं, जिनमें "णाहं णारयभावो' इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके पांच सूत्रों द्वारा कृत-कारित-अनुमोदना से परभाव के कर्तृत्व का निराकरण है। पुनः “एरिसभेदभासे' इत्यादि रूप एक सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण का प्रयोजन बताकर, "मोत्तूण बयणरयणं' इत्यादि सात गाथासूत्रों द्वारा रागादिभाव, विराधना, अनाचार, उन्मार्ग, शल्यभाव, अगुप्तिभाव और दुर्ध्यान-इन सभी से आत्मा को दूर करके, शुद्धोपयोग-लक्षण परमार्थप्रतिक्रमण में आत्मा को स्थापित करते हैं। पुनः चिरकाल से भाये गये भावों का त्याग कराकर, पूर्व में नहीं भाये गये ऐसे भावों को स्थापित करने के लिए, "मिच्छत्तपहुदिभावा" इत्यादि रूप दो गाथासूत्र हैं। इसके बाद
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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