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________________ निमार गाना उक्तं च श्रीपूज्यपाददेवैः-- आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारबाहि स्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद योगेम योगिनः॥ अनेनानन्देन तात्कालिकतृप्तिः, उत्तान्योऽपि कश्चिल्लाभः ? इति जिज्ञासायामुच्यते, तैरेव देवैः-- आनंदो निवहत्युद्धं कमेंन्धनमनारतम् । न चासौ खिद्यते योगी बहिदुःखेष्वचेतनः ॥ ये केचिद् योगिनो बाह्यातापनादियोगेषु कुशलास्त एव परमानन्दामृतपिपा. सबो भव्यजनेभ्यो बोधिसमाधिदानेन तपिष्यन्ति नान्येऽस्मात्कारणात् श्री पूज्यपादस्थामिभिरपि प्रायते-- इति योगत्रयधारिणः सकलतपशालिमः प्रवृद्धपुण्यकायाः। परमानंवसुखैषिणः समाधिमायं विशंतु नो भदन्ताः ॥ श्री पूज्यपाददेव ने कहा भी है-- जो योगी आत्मा के अनुष्ठान में लगे हुए हैं और व्यवहार से बाहर हो चुके हैं, उनको उस योग से कोई एक परम आनंद उत्पन्न होता है। इस आनंद से तत्काल में ही तृप्ति होती है अथवा और भी कोई लाभ होता है ? ऐसो जिज्ञासा होने पर श्री पूज्यपाद आचार्य ही उत्तर देते हैं । यह आनंद सतत उत्पन्न हुए कर्मरूपी ईधन को जला देता है । जिससे वह योगी बाह्य दुःखों के आने पर भी उनमें अचेतन-अनुभव शून्य होता हुआ ग्वेद को नहीं प्राप्त होता है। जो कोई योगी बाह्य आतापन आदि योगों में कुशल हैं वे ही परमानंद रूपो अमृत के स्वयं पिपासु होते हुए भव्यजनों को बोधि और समाधि का दान देकर संतर्पित कर देते हैं अन्य योगी नहीं, इसलिए श्रीपूज्यपादस्वामी ने भी प्रार्थना की है इस प्रकार आतापन आदि तीनों योग के धारी, संपूर्ण तपों को तपने वाले, पुण्य को वृद्धिंगत करनेवाले और परमानंद सुख के इच्छुक ऐसे योगिराज हम सभी को श्रेष्ठ समाधि प्रदान करें। १. इष्टोपदेश, श्लोक ४७ ।। २. इष्टोपदेश, क्लोक ४९ । ३. योगिभक्ति । ५८
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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