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________________ ४०२ नियमसार-प्राभूतम् ___ तात्पर्यमेतत्-योगक्ति चिकीर्षवः साधवो यथावलं बाह्ययोगः स्वशक्ति वधंयन्तः सन्तः अध्यात्मयोगसिद्धि साधयन्तु । निश्चयसम्यग्दर्शनमेव परमयोगो भवेदिति कथयन्ति मूरिवर्याः___ विवरीयाभिणिवेसं, परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु । - जो जुजदि अप्पाणं, णियभावो सो हवे जोगो ॥१३९॥ विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता-विपरीयाभिप्रायं त्यक्त्वा, केषु विषयेषु ? जोहकहियत्तच्चेसु-जिनेन्द्रदेवकथितो यः कश्चिदागमस्तेषु कथितेषु तत्त्वेषु अथवा जिमा देवता एषां ते जैना: जिनधरणसरोजचंचरीका गणधरदेवादयस्तैः कथितेष तत्त्वेष। जीवाजीबास्त्र नबंधसंवरनिर्जरामोक्षनामधेयेष। किं करोति ? जो अप्पाणं मुंगतियः प्रशिक्षण सोता जारिशामित्रास्त्रिीतरागसम्यग्वृष्टिः साधुः कारणपरमात्मस्वरूपं निजात निं युक्ति । तस्य किं भवेत् ? सो णियभावो जोगो हवे-तस्यैव महामनेः स एव निजभावो योगो भवेत् । ___ तात्पर्य यह है कि योगभक्ति को करने के इच्छुक साधु यथाशक्ति बाह्ययोगों के द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाते हुए अध्यात्म योग की सिद्धि को साधित कर लेवें। निश्चय सम्यग्दर्शन ही योग है, अब आचार्यदेव ऐसा कहते हैं अन्वयार्थ (जो विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता) जो साधु विपरीत अभिप्राय को छोड़कर (जोण्हकरियतच्चेसु) जिनेंद्रदेव कथित तत्त्वों में (अप्पाणं जुजदि) आत्मा को लगाते हैं। (सो णियभावो जोगो हवे) उनका वह निजभाव ही योग होता है ।।१३।। टीका-जिनेंद्रदेव कथित जो आगम हैं उनमें कहे गये तत्त्वों में, अथवा जिन हैं देवता जिनके वे जैन हैं-जिनेंद्रदेव के चरण कमल के भ्रभर ऐसे गणवर देवादि "जैन' कहलाते हैं। उनके द्वारा कथित तत्त्व जो कि जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को छोड़कर जो काई वीतरागचारित्र से अविनाभावो वीतरागसम्यग्दृष्टि साधु कारणपरमात्मा स्वरूप अपनी आत्मा को उन तत्त्वों में लगाते हैं । उन महामुनि का वह निजभाव योग कहलाता है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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