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________________ पुनः इनकी गुण पर्यायों को बतलाकर धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य का वर्णन किया है। गाथा चौंतीसवीं में अस्तिकाय का लक्षण करके ३५-३६ वी सर्वद्रव्य के प्रदेशों की संख्या बतलाई है 1 पुनः गाथा ३७ वी में चेतन अचेतन और मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का विवेचन है। इस अधिकार की टीका में सर्व प्रथम मध्यलोक के ४४८ अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की वंदना की है। पुन पुद्गल द्रव्य का विवेचन करते हुए टोका में तात्पर्य अर्थ में यह दिखाया है कि इस पुद्गल के संयोग से ही संसार परम्परा चलती है अतः इसका सम्पर्क छोड़ने योग्य है, आगे गाथा ३०वीं में धर्म और अधर्म के निमित्त से ही सिद्ध भगवान लोकाकाश के अग्रभाग पर स्थित हैं लोकाकाश में नहीं जा सकते अतः सिद्ध भगवान् भी कथंचित निमित्ताधीन हैं। इसी तरह ये सिद्ध परमेष्ठी हम लोगों की सिद्धि में भी निमित्त हैं । आगे गाथा ३१-३२ में काल द्रव्य का कुछ पाठ भेद चर्चा का विषय है उसे मैंने गोम्मटसार के आधार से स्पष्ट किया है। गाथा ३५-३६ में अमूर्तिक द्रव्यों के भी प्रदेश मुख्य हैं न कि कल्पित, इसे तत्त्वार्थराजवार्तिक के आधार से स्पष्ट किया है अनन्तर गाथा ३७ वीं की टीका में संसारी जोवों का शरीर कथंचित चेतन है कि उसके चैतन्य आत्मा का ससग है यह दिखाया है। इस तरह इस अधिकार में १८ गाथाएं हैं इसके अंत में छह तत्त्वों के अन्तर्गत स्थित चिच्चैतन्य चिंतामणि आत्मा को नमस्कार किया है। ३. शुद्धभाव अधिकार सम्यग्दर्शन के विषयभूत श्रद्धान करने योग्य ऐसे जीव-अजीव रूप छह द्रव्यों को दो अधिकार में कथन करके अब इस तृतीय अधिकार में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया गया है । यहाँ इसका नाम 'शुद्ध भाच' अधिकार है क्योंकि इसमें शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव को शुद्ध, सिद्ध सदृश बतलाया है। इसमें जो "अरसमरूवमगंध" गाथा है वह समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, षट्नाभूत आदि ग्रन्थों में भी ग्रन्थकार श्री कुन्दकुन्ददेव ने ली है। इससे यह गाथा कितनी महत्वपूर्ण है और कुन्दकुन्ददेव को कितनी अधिक प्रिय भी यह प्रगट हो जाता है । आगे गाथा ४९ वी में नय विवक्षा खोलकर एकांतवादियों को सावधान किया है। अन्त में प्रकारांतर से सम्यग्दर्शन, ज्ञान का लक्षण बतलाकर सम्यक्त्व के अतरंग-बहिरंग कारण बतलाये हैं 1 पुनः व्यवहार निश्चय चारित्र कहाँ होते हैं ? यह संकेत किया है । इस अधिकार में १८ गाथायें हैं। ___ इसको टीका में सर्वप्रथम स्वपर भेदविज्ञान से युक्त दर्शन-बिशुद्धि आदि सोलह भावना के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने वाले जिन महापुरुषों का अभिषेक पाँच मेरुओं पर होता है, उनको और उन मेरुओं के अस्सी जिनमंदिरों को नमस्कार किया है । पुनः इसमें जीव के शुद्ध भावों का वर्णन करते हुये कहा है कि शुद्ध जीव के क्षायिक भाव भी नहीं है इसको टीका में अच्छी तरह से पंचास्तिकाय का उद्धरण देकर पुष्ट किया है। गाथा ४७वीं का पूर्वार्ध बहुत ही अच्छा लगता है। "जारिसिया सिद्धप्प भवमल्लिय जीवतारिसा होति ।" जैसे सिद्ध भगवान् है वैसे ही संसार में रहने वाले जीव हैं । गाथा ४९. की टीका में आलापपद्धति के आधार से नयों को स्पष्ट किया है । गाथा ५२ की टीका में सम्यक्त्व के लक्षण को कसायपाहुड आदि ग्रन्थों के आधार से स्पष्ट किया है। गाथा ५३ में धवला के आधार से सम्यक्त्व के बहिरंग कारणों पर प्रकाश डाला है। गाथा ५४ में व्यवहार निश्चय चारित्र के कथन की प्रतिज्ञा की है। इस अधिकार के उपसंहार में मैंने मनुष्य लोक के तीन सौ अट्ठानवें चैत्यालयों की वंदना की है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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