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________________ ४. व्यवहारचारित्राधिकार इस अधिकार में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का वर्णन किया है । विशेष यह है कि महायत और समिति में निश्चय नय को न घटाकर गुप्तियों में व्यवहार गुप्ति-निश्चय गप्ति दो भेद किये हैं। अनंतर ५ गाथाओं द्वारा पांच परमेष्ठी का लक्षण करके गाथा ७६ वीं में कहा है कि यहाँ तक व्यवहार नयाश्रित चारित्र बहा, इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा 1 एरिसय भावणाए ववहारणयस्स होवि चारितं । णिच्छयणयस्स चरणं एतो उड्द पवक्वामि ॥७६॥ इस गाथा से यह स्पष्ट है कि व्यवहार चारित्र के बाद ही निश्चय चारित्र होता है न कि पहले । इस अधिकार में इक्कीस गाथायें हैं। इसकी टीका में मैंने सर्वप्रथम जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में इस पंचमकाल में भी तेरहविध चारित्र के धारक दिगंबर मुनिको नमस्कार किया है। आगो प्रथम मदानत की टीका में दयाधर्म को रत्नत्रय के अंतर्गत कहकर उसे उपादेय कहा है। गाथा ७० में निश्चय कायगुप्ति को बतलाकर ये निश्चय गुप्तियाँ किन मुनियों को होती हैं ? इसे खुलासा किया है। गाथा ७५ में साधु परमेष्ठी का लक्षण करके, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीनों देव-पूज्य कैसे हैं ? इस प्रश्न को धवला के आधार से स्पष्ट किया है। सन् १९४८ में अक्षयतृतीया के पवित्र दिवस में मैंने यह टीका लिखना प्रारम्भ की थी। वर्षायोग के बाद यहाँ से विहार कर दिल्ली गई थी। पुनः सन् १९७९ में अक्षय तृतीया से ही नव निर्मित सुमेरु पर्वत के जिनबिबों का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोह होने वाला था। मार्च में मैंने दिल्ली से विहार के पूर्व इस लेखन को बन्द कर दिया था, सोचा था कि प्रतिष्ठा के बाद पुनः लिखूगी । कूछ ऐसे ही व्यवधान आते गये कि पुनः इस अपूर्ण टीका को पूर्ण करने की तरफ लक्ष्य नहीं गया। गत वर्ष वैशास्त्र वदी द्वितीया को अपनी आर्यिका दीक्षा के दिवस इस टीका को निकाला और उसका वाचन तथा हिन्दी अनुवाद शुरू कर दिया 1 कु. माधुरी की विशेष प्रेरणा रही कि इस चतुर्थ अध्याय को आप पूर्ण कर दें इसे प्रकाशित करना है। मैंने देखा इस टीका में १०८ पृष्ठ तक लेखन कार्य हो चुका है। तब मैंने ७५वीं गाथा की अपूर्ण टीका को प्रारम्भ करते समय श्री गौतमस्वामी की चैत्यभक्ति का एक मंगल श्लोक लिखकर (सुमेरु पर्वत के सामने बैठकर) अकृत्रिम सुमेरु पर्वत को परोक्ष में नमस्कार करके सामने स्थित सुमेरु के चैत्यालयों की बंदना करके 'यह मेरी टीका निर्विघ्न पूर्ण होवे ऐसी प्रार्थना करके लिखना शुरू कर दिया । मुझे संतोष ही नहीं आश्चर्य भी हुआ कि यह टीका इसी वर्ष में आगे होने वाली जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना के पूर्व ही पूर्ण हो गई है। जबकि आर्यिका रत्नमती माताजी का तथा मेरा शारीरिक स्वास्थ्य कमजोर ही चलता रहा था। इससे मुझे यह निश्चय हुआ कि यह यहाँ विद्यमान सुमेरु पर्वत महान् अतिशयगाली हैं। वे पंक्तियाँ ये हैं ___"अधुनाकृत्रिममनादिनिधनं सुदर्शनमेर महाशैलेन्द्रं हृदि स्मृत्वा तं परोक्षरूपेण पुनः पुनः नमस्कृत्य इमं च नयनपथगोचरं कृत्रिम तस्यैव प्रतिकृतिरूपं सुमेरुपर्वतं तत्रस्थान त्रिभुवनतिलकजिनालयान् जिनप्रतिमाश्चापि त्रियोगशुद्धचा मुह हुर्वदित्वा दीर्घकालव्यवधानानंतरं स्याद्वाद
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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