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________________ ७ चन्द्रिकाटीकाया लेखनकार्य पुनः प्रारम्यते मया, एतन्निविघ्नतया पूर्णता लभेत ईवृम्भावनया पंचगुरुवरणशरणं गृहीत्वा एवमेव प्रायते'।" इस प्रकार प्रार्थना कर चार दिन में इस शेष रही ७५वीं गाथा की तथा ७६वों गाथा की टीका लिखकर श्रुतपंचमी के दिन इस चतुर्थ अधिकार को पूर्ण किया और इसी उत्तम दिवस अगले पंच अधिकार की टीम पारंभ कर। इस चतुर्थ अधिकार के अंत में जिनके शासन से लेकर आज तक जैन धर्म अविच्छिन्न चला आ रहा है ऐसे शांतिनाथ भगवान को नमस्कार किया है। ५. परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार इस अधिकार में पहले भेदविज्ञान की भावना कराते हुए निश्चय प्रतिक्रमण का लक्षण बतलाया है। जो मुनि इस निश्चय प्रतिक्रमणरूप ध्यान में स्थित हो जाते हैं वे मुनि प्रतिक्रमणमय बन जाते हैं ऐसा कहा है। इसमें १८ गाथायें हैं। इस अधिकार की टीका के प्रारम्भ में मैंने इन्द्रभूति अपर नाम श्री गौतमस्वामी को नमस्कार किया है। इस प्रतिक्रमण के प्रकरण की टीका में स्थल-स्थल पर मैंने श्री गौतमस्वामी के द्वारा रचित प्रतिक्रमण पाठ की पंक्तियों को लिया है। और व्यवहार प्रतिक्रमण पूर्वक ही निश्चय प्रतिकमण सिद्ध होता है यह बात सिद्ध की है। गाथा ९३ की टीका में सभी सातों प्रकार के प्रतिक्रमण आज के साधुओं को करना ही चाहिये । यह मूलाचार के आधार से स्पष्ट किया है। इस अधिकार के अंत में श्रीकुन्दकुन्द से लेकर अपने आर्यिका दीक्षा के गुरु आचार्य श्री वीरसागर पर्यंत गुरुओं को नमस्कार किया है। ६. निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार ___इस अधिकार में आचार्य देव ने आत्मा के ध्यान को ही निश्चय प्रत्याख्यान त्याग कहा है तथा पर वस्तुओं से ममत्व छुड़ाकर आत्मा का आलम्बन लेने का उपदेश दिया है । यह प्रयाख्यान भी महामुनियों के ही संभव है। इसमें १२ गाथाएँ हैं । इसकी टीका के प्रारम्भ में मैंने तीन कम नव करोड़ मुनियों को नमस्कार किया है। परे ढाईद्वीप के मुनियों की यह संख्या है। इसमें मैंने व्यवहार प्रत्याख्यान का लक्षण और भेद, मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि के आधार से बतलाकर अंत में भगवान् आदिनाथ का और दानतीर्थप्रवर्तक राजा श्रेयांस का स्मरण किया है । ७ परमआलोचना अधिकार इस अधिकार में आत्मा के ध्यान को ही निश्चय आलोचना कहा है । यह भी महामुनियों के ही होती है । इसमें ६ गाथायें हैं । ___इसको टीका में सर्वप्रथम भगवान आदिनाथ के चौरासी गणधर को नमस्कार किया है। पुनः मूलाचार और समयसार आदि के आधार से व्यवहार-निश्चय आलोचना को बतलाया है। इसके अंत में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम ७८ जिनमंदिर और उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को नमस्कार किया है। १. अधिकार ४ गाथा ७५ के मध्य को पंक्तियाँ हैं।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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