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________________ ८. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त अधिकार इसमें भी चारों कषायों का निग्रह करके आत्मा का ध्यान करना और धेष्ठ तपश्चरण तथा कायोत्सर्ग में स्थित होकर निर्विकल्प ध्यान करने को ही निश्चय प्रायश्चित्त कहा है । इसमें ९ गाथायें हैं। इसकी टीका में भगवान् शांतिनाथ को नमस्कार किया है। पुनः व्यवहार प्रायश्चित्त के भेद बतलाकर इसका महत्त्व बतलाया है क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय नहीं होता है। ऐसे ही व्यवहार तपश्चरण को भी महत्त्व दिया है। अनन्तर गौतमस्वामी द्वारा रचित ध्यान के महत्त्व की सूचक गाथा देकर ध्यान की प्रेरणा दी है। गाथा १२१ में शरीर से ममत्व छुड़ाने का अच्छा विवेचन है । अन्त में एक वर्ष तक ध्यान में लीन हुए भगवान् बाहुबली को नमस्कार किया है। ९. परमसमाधि अधिकार आचार्यदेव ने ध्यान को ही परमसमाधि कहा है। यह समाधि भी महामुनियों के ही सम्भव है । इसमें स्थायी सामायिक अर्थात् पूर्ण समताभाव का अच्छा विवेचन है। इसमें १२ गाथायें हैं। इसको टीका में सर्वप्रथम चौबीस तीर्थकरों के चौदह सौ बावन गणधरों को नमस्कार किया है। माथा १२२ में भगवान आदिनाथ के निश्चलध्यान को लेकर ध्यान पर प्रकाश डाला है तथा जिनकल्पी और स्थविरकाल्पी मुनि की चर्या बतलाई है। इस पंचमकाल में कौन सा ध्यान शक्य है और कैसे मुनि होते हैं ? इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। अन्त में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज को नमस्कार किया है। १०. परमभक्ति अधिकार इस अधिकार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने श्रमण और श्रावक दोनों को लिया है। यथा "सम्मत्तणाण चरणें भत्ति जो कुणइ सावगो समणो।" जो श्रावक या श्रमण रत्नत्रय की भक्ति करते हैं उनके निर्वाणभक्ति होती है। आगे निश्चय भक्ति को कहा है जो कि महायोगियों में ही घटित होती हैं । इसमें ७ गाथायें हैं । इसकी टीका में कैलाशगिरि आदि निर्वाण भूमि को नमस्कार किया है। पुनः व्यवहार भक्ति निश्चय भक्ति प्राप्त होती है यह खुलासा किया है। तथा भक्ति हो सम्यग्दर्शन है यह श्री जयसेनाचार्य की पंक्तियों से स्पष्ट किया है। इस भक्ति के अधिकार में कुन्दकुन्ददेव रचित दशभक्ति तथा पूज्यपाद आचार्य कृत दशभक्तियो जो आज प्रचलित हैं उन्हें साधु अपनी क्रियाओं में पढ़ते हैं | गाथा १३५ में इसका दिङ्मात्र वर्णन कर निश्चयभक्ति को साध्य कहा है । गाथा १४० में ग्रन्थकार ने कहा है कि "उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्ति । णिधुदिसुहमावणा।" वषभदेव आदि तीर्थङ्करों ने श्रेष्ठ योगभक्ति करके ही निर्वाण सुख प्राप्त किया है। इसकी टीका में तीर्थकर आदि महापुरुष भक्ति को करके ही भगवान् बने हैं यह दिखलाया है। अन्त में ऋषभदेव से लेकर वर्धमान भगवान् तक चौबीस तीर्थङ्करों को नमस्कार किया है। ११. निश्चयपरमआवश्यक अधिकार इस अधिकार में आवश्यक शब्द का नियुक्ति लक्षण करके यह आवश्यक किनके होता है ?
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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