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________________ सो सिद्ध किया है। अर्थात् जो स्ववश हैं उन्हीं के आवश्यक होता है अन्यवश मुनि के नहीं। अन्यवश के लक्षण में स्वयं कुन्दकुन्ददेव ने कहा है __ "जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो।" तथा "दवगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सोवि अण्णवसो।" __ जो मुनि शुभभाव में आचरण करते हैं वे अन्यवश हैं। ऐसे ही जो मुनि द्रव्य, गुण और पर्यायों में चित्त को लगाते हैं वे भी अन्यवश हैं 1 स्ववश के लक्षण में कहा है परिचत्ता परभावं अप्पाणं सादि णिम्मलसहावं । अप्पयसो सो होवि हुतस्स दु कम्म भणति आवासं ॥ जो मुनि पर भावों को छोड़कर निमल स्वभाव आत्मा का ध्यान करते हैं वे आत्मवश हैं इसलिए उनकी क्रियायें आवश्यक कहलाती हैं। इन लक्षणों की अपेक्षा श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं भी ग्रन्थलेखन, आहार, बिहार, उपदेश आदि शुभकार्यों में प्रवृत्ति करते थे सतत आत्मा का ध्यान नहीं करते थे। अतः वे भी कथंचित् अन्यवश कहे जा सकते हैं। आगे ग्रन्थकार ने कहा है कि--- "जो धर्म शुक्लध्यान से परिणत हैं वे श्रमण अंतरात्मा हैं। ध्यानविहीन श्रमण बहिरात्मा हैं।" इसमें टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी कहा है- . "इह हि साक्षावन्तरात्मा भगवानू क्षीणकषायः।" यहाँ पर साक्षात् अन्तरात्मा क्षोणकषाय बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं। अतः यह गुणस्थान श्री कुन्दकुन्ददेव को इस भव में प्राप्त नहीं हुआ था । इसके होने पर तो अन्तमुहूर्त में नियम से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। आगे ग्रन्थकार ने कहा है कि "यदि करना शक्य है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करे और यदि शक्ति न हो तो श्रद्धान ही करना चाहिए।" इसकी टोका में पद्मप्रभमलधारी देव ने पंचमकाल में अध्यात्म ध्यान का निषेध करके श्रद्धान करने का ही आदेश दिया है । यथा-- यथा-असारे संसारे किल विलसिते पापबद्दले । न मुक्तिमार्गेऽस्मिलनघ जिननाथस्य भवति ॥ अतोऽध्यात्मध्यानं कमिह भ निर्मलधियां । निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् ।। इस अधिकार के अंत में कहा है सख्ये पुराणपुरिसा एवं आवासयं 4 काऊण। अपमत्त पहुविठाणं पडिवजय केवली जावा ॥५८॥ १. गाथा नम्बर १५१ । २. नियमसार गाथा १५४1
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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