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________________ सभी प्राचीन महापुरुषों ने इस प्रकार आवश्यक क्रियाओं को करखे अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर केवली पद प्राप्त किया है । इसमें १८ गाथायें हैं। इस अधिकार की टीका में सर्वप्रथम मैंने जम्बूद्वीप को चौंतीस कर्मभूमियों में जितने भी तीर्थङ्कर परमदेव, केवली, श्रुतकेबली और निर्ग्रन्थ मुनि विद्यमान हैं उनको नमस्कार किया है। गाथा १४१ की टीका में व्यवहार यह आवश्यकों का लक्षण बललाकार अपने पद के अनुरूप अर्थात् छठे गुणस्थान में ये करणीय ही हैं ऐसा सूचित किया है। गाथा १४२ में अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना ऋद्धिधारी महामुनि भी करते रहते हैं इसे गोम्मटमार के आधार से लिया है । गाथा १४४ में "श्री गौतमस्वामी, श्री कुन्दकुन्ददेव बन्दना आदि आवश्यक क्रियाओं में समय तथा उपदेश और ग्रन्थ लेखन के समय शुभभाव में रहते थे, ध्यान में शुद्धोपयोगी होते थे, इत्यादि खुलासा किया है। गाथा १५१ की टीका में उत्तम अंतरात्मा बारहवें गुणस्थानधर्ती हैं यह प्रकरण लिया है । गाथा १५८ को टीका में तीर्थंकरों ने भी सिद्धवंदना आदि व्यवहार आवश्यक भी किया है इत्यादि विषय स्पष्ट किया है। इस अधिकार के अन्त में अपने दीक्षा गुरु श्री वीरसागर आचार्यदेव को नमस्कार किया है। ___इन ग्यारह अधिकार तक मार्ग का कथन है। १२. शुद्ध उपयोग अधिकार इसमें व्यवहार और निश्चयनय से केवली भगवान का स्वरूप बतलाकर ज्ञान को पर प्रकाशी, दर्शन को स्वप्रकाशी और आत्मा को स्वपर प्रकाशी मानने वालों का निराकरण करते हुये गाथा १६४ में व्यवहार नय से ज्ञान, दर्शन और आत्मा को पर प्रकाशो तथा गाथा १६५ में निश्चय नय से तोनों को आत्मप्रकाशी कहा है ! बात यह है कि सिद्धांत ग्रन्थ-धवला में पूर्वोक्त मान्यता है किन्तु यहाँ अध्यात्म दृष्टि से नयों की अपेक्षा से अलग है। ऐसे हो न्याय ग्रन्थों में दर्शन को स्व का सत्तामात्र ग्राही ज्ञान को स्वपर का विशेषांश प्रकाशी और आत्मा को स्वपर प्रकाशी माना है। अतः सिद्धांत, अध्यात्म और न्याय ग्रन्थ, तीनों में अन्तर होते हुये भी अपेक्षाकृत मानने से कोई दोष नहीं है । पुनः केवली भगवान का स्वरूप बतलाया है, उनकी जानने बोलने और श्री बिहार की क्रियाओं के होते रहने पर भी उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता यह सिद्ध कर दिया है । पश्चात् गाथा १७६ से सिद्ध परमात्मा का वर्णन किया है। गाथा १८४ में धर्मास्तिकाय के निमित्त से जीव लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकते यह कहा है। अनंतर ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रमट कर धर्मद्वेषी जनों से बचने का संकेत करते हुये ग्रन्थरचना के उद्देश्य को स्पष्ट किया है । इस अधिकार में २९, गाथायें हैं। _इसको टीका में सर्व एक साथ में होने वाले अधिकतमाअयोग केवली'गुणस्थानवर्ती आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ दो केवली भगवन्तों को नमस्कार किया है। इसमें मार्ग के फल निर्वाण का वर्णन होने से टोका में मैंने इसे मोक्षाधिकार कहा है फिर भी शुद्ध उपयोग अधिकार भी सिद्ध किया है। पुनः श्रेसठ प्रकृतियों को नष्ट कर केवली होते हैं उन प्रकृतियों को गिनाया है। आगे सिद्धांत ग्रंथ और न्याय ग्रन्थ की मान्यता को भी दिखाकर अनेकांत को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। गाथा १७२ में केवली भगवान की क्रियायें इच्छा पूर्वक नहीं होती हैं इस पर प्रकाश डाला है। गाथा १७३ व १७४ को टोका में तीर्थंकर प्रकृतिबंध के कारणों को दिखलाकर उसके फलस्वरूप दिव्य ध्वनि का विवेचन किया है। गाथा १७५ में समवशरण का
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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