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________________ ५६० नियमसार - प्राभूतम् श्रीशांतिसागराचार्यो चारित्र चक्रवर्तिभाक् । तस्य पट्टाधिपः सूरिः श्रीवीरसागरोऽभवत् ||७| तत्पट्टे संघनाथोऽभूत् श्रीशिवसागरोऽधुना । अलंकरोति तत्पट्टम्, आचार्यो धर्मसागरः ॥ शान्तिसागरसंतत्याम् आचार्यो देशभूषणः । आधो दीक्षागुरुर्मेऽस्ति संसारान्धस्तरण्डकः ॥ ९॥ महाव्रतस्य वाता मे गुरुः श्रीवीरसागरः । नाम्ना ज्ञानमती चाहं यत्प्रसादाद् गुणैरपि ॥ १०॥ बाल्यकाले मया गेहे, दर्शनादिकथानकम् । पंचविशतिका शास्त्रं पद्मनंदिकृतं च यत् ॥ ११ ॥ तेषां स्वाध्यायतो लब्धा, ज्ञानवैराग्यसंपदा । बाह्य किंचिन्निमित्तेन विरक्ति में ततोऽभवत् ॥ १२॥ श्री शांतिसागर आचार्य हुये हैं । उनके पट्ट पर श्री वीरसागर आचार्य हुये हैं । उनके पट्ट पर श्री शिवसागर आचार्य हुये हैं । इस समय आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज इन शिवसागर आचार्य के पट्ट को अलंकृत कर रहे हैं । I आचार्य श्री शांतिसागर जी की परम्परा में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज विद्यमान हैं | ये मेरे आद्य दीक्षागुरु-क्षुल्लिकादीक्षा के गुरु हैं । ये संसार रूपी समुद्र से पार करने में नौका के समान हैं। महाव्रत को मुझे प्रदान करने वाले गुरुदेव श्री वीरसागर आचार्य हैं, जिनके प्रसाद से नाम और गुणों से भी मैं ज्ञानमती हुई हूँ, अर्थात् आचार्य श्री वीरसागर जी ने मुझे आर्यिका दीक्षा देकर मेरा नाम " ज्ञानमती" रक्खा तथा ज्ञानादि गुणों से भी मुझे ज्ञानमती कर दिया है । 7 बचपन में मैंने घर में दर्शनकथा, शोलकथा आदि कथायें पढ़ी थीं और "पद्मनंदि-पंचविंशतिका' नाम के शास्त्र का स्वाध्याय किया था । उन्हीं ग्रन्थ आदि के स्वाध्याय से मुझे ज्ञान और वैराग्य की सम्पत्ति प्राप्त हो गई । पुनः किंचित्
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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