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________________ नियमसार-प्राभृतम् पयोगे स्थित्या परमार्थप्रतिक्रमणाऱ्या भवन्ति, अधुना यद् देवसिको बृहत्प्रतिक्रमणपाठश्चोपलभ्यते स श्रीगौतमगणथरदेवरचितः प्रभाचन्द्राचार्येण कृतभाष्यश्चैव । तदेय वृश्यतां श्रीप्रभाचन्द्राचार्यवाक्यम् ___ "श्रीगौतमस्वामी मुनीनां दुष्यभकाले दुष्परिणामादिभिः प्रतिदिनमुपाजितस्य कर्मणो विशुद्धपर्थ प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादी मंगलार्थमिष्टदेवताविशेष नमस्करोति श्रीमते वर्धमानाय नमो नमितविद्विषे । यज्वानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते'। पुनश्च बृहत्प्रतिक्रमणे गौतमस्वामिभिरेव कथितम् एसो पडिक्कमणविहि पण्णतो जिणवरेहि सवेहि । संजमतंयट्ठियाणं णिग्गंयाणं महरिसीणं ॥" परमार्थ-प्रतिक्रमण के योग्य होते हैं । इस समय जो "देवसिक" और "बृहत्प्रतिक्रमण" पाठ उपलब्ध है, वह श्री गौतम गणधरदेव के द्वारा रचित है, उस पर श्रीप्रभाचंद्राचार्य ने टीका भी रचो है । उन्हों श्रीप्रभाचन्द्राचार्य के वाक्य को देखिये "श्रीगौतम स्वामी मुनियों के इस दुःषमकाल में दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन में उपाजित कर्मों की विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण-लक्षण उपाय को कहते हुए उसकी आदि में मंगल के लिए इष्ट देवता-विशेष को नमस्कार करते हैं--- ___ "जिन्होंने अपने चरणों में शत्रुओं को भी झुका लिया है, ऐसे अन्तरंगबहिरंग लक्ष्मी से युक्त श्री वर्धमान भगवान् को नमस्कार होवे । जिनके ज्ञान के अंतर्गत यह तीनों लोक गाय के खुर के स्थान सदृश आचरण कर रहा है, अर्थात् जैसे गाय के खुर का स्थान छोटा सा है, वैसे ही सारा तीन लोक भगवान् के केबलज्ञान में लघुरूप से झलकता है।" पुनः बृहत्प्रतिक्रमण में गौतम स्वामी ने स्वयं ही कहा है "संयम और तप में स्थित, निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए इस प्रतिक्रमण-विधि को सभी जिनवरों ने कहा है।" १. प्रतिक्रमणमन्यत्रयी। २. पाक्षिकप्रतिक्रमण ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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