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नियमसार-प्रामृतम् स्थविरकल्पिमनीनामिति ज्ञात्वा एतत्परमसमाधिध्यान ध्येयं कृत्वा स्थविरकल्पिनां चर्या सावधानतया परिपालनोया, तथा च ये केचिन्महानतिनः संति, सेषां वंदना भक्तिः पूजा च कर्तव्याऽस्ति ॥१२२॥
पुनरपि परमसमाधिस्वामिनं कथयन्ति रिवर्याः. संजमणियमतवेण दु, धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण ।
जो झायइ अपाणं, परमसमाही हवे तस्स ॥१२३॥
संजमणिग्रमतवेण दु-द्वावविधसंयमेन भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणनियमेन आतापनावियोगरूपनियमेन वा द्वादशविधेन तपसा कायक्लेशाविना च खलु परिणतः । धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण-आज्ञापायविपाकसंस्थानविनयरूपचतुर्विधधर्म्यध्यानेन सहजज्ञानदर्शनस्वरूपस्वात्माश्रितधर्म्यध्यानेन वा शुक्लध्यानेन च। जो अप्पाणं झायइ-यः वीतरागचारित्रधारी प्रदामुनिः स्वारमानं ध्यायति, तस्स परमसमाही हवे-तस्यैव शुद्धोपयोगयुक्तस्य तपोधनस्य परमसमाधिः भवेत् । धिनाम का ध्यान होता है, किन्तु इस दुष्षमकाल में स्थविरकल्पी मुनियों के यह परमसमाधि नहीं होती । ऐसा जानकर इस परमसमाधि ध्यान को ध्येय बनाकर स्थविरकल्पी मनियों की चर्या सावधानीपूर्वक पालन करना चाहिये और उसी प्रकार जो कोई भी महावती मुनि है, उनको वंदना, भक्ति और पूजा करते रहना चाहिये ॥१२२।।
आचार्यदेव पुनः परमसमाधि के स्वामी का लक्षण कहते हैं
अन्वयार्थ--(संजमणियमतवेण दु) संयम, नियम और तप के द्वारा, (धम्मज्झाणेण सुकझाणेण) धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान के द्वारा (जो अप्पाणं झायइ) जो आत्मा को ध्याते हैं, (तस्स परमसमाही हवे) उनके परमसमाधि होती है।
दोका-बारह प्रकार के संयम द्वारा, भेदाभेद रत्नत्रय लक्षण नियम के द्वारा, अथवा आतापन योग आदि नियम के द्वारा और बारह प्रकार के तपश्चरण या कायक्लेश आदि तप के द्वारा परिणत हुये आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नाम वाले चार प्रकार के धय॑ध्यान के द्वारा अथवा सहज ज्ञानदर्शन स्वरूप अपनी आत्मा के आश्रित धम्यंध्यान के द्वारा और शुक्लध्यान के द्वारा जो बीतरागचारित्रधारी महामुनि अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उन्हीं शुद्धोपयोग से युक्त तपोधन के परमसमाधि होती है ।