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________________ ३५४ नियमसार-प्राभृतम् तद्यथा-ये केचिदपहृतसंग्रमिनो नानाविधनियमान् कुर्वाणाः सूर्याभिमुखप्रतिमायोगादिकायक्लेशादितपोविशेषेण गगनचारिसौषधिक्षोरखान्याविऋदि समुत्पाद्य सुदर्शनमे,दिपंचमेरूणां वन्दनाभक्ति विदधातास्तत्रैव क्वचित् चैत्यालयेऽत्र निर्जने बने वा योगमुद्रामादाय निश्चयधय॑ध्यानमवलम्ब्य तिष्ठन्ति, त एव शुक्लध्यानं ध्यातुं क्षमा भवन्ति । एषां धर्मेशुक्लध्यानिनामेव परमसमाधिः सिद्धधति । ननु अघ भरतक्षेत्रे यद्यसौ परमसमाधिर्नास्ति तहि कथमत्रोपदेशः क्रियते ? सत्यमेतत्, यद्यपि उत्तमसंहननाभावे अद्य निश्चयधर्म्यध्यानरूपेण शुक्लध्यानरूपेण च सा नास्ति, तथापि व्यवहारषHध्यानरूपेण कथंचित् गौणवृत्त्या स्वस्थानाप्रमत्तमुनीनां भवितुमर्हति । किंच-बोधहेतुत्वात् चतुर्दशगुणस्थानानां चतुर्विधशुक्लध्यानानामपि शास्त्रे सदुपवेशो दृश्यते। परमसमाधिध्यानस्य बोधात् उसे ही कहते हैं जो कोई अपहृतसंयमधारी संयमी मुनि अनेक प्रकार के नियमों को करते हुये सूर्य की ओर मुख करके, इत्यादि रूप प्रतिमायोग आदि कायक्लेश तपविशेष के द्वारा आकाशगामी, सर्वोषधि, क्षीरसावी आदि ऋद्धियों को उत्पन्न करके सुदर्शनमेरु आदि पाँच मेरुओं की वन्दना भक्ति करते हुये वहीं पर किसी चैत्यालय में अथवा निर्जन वन में योगमुद्रा धारण कर निश्चयधर्म्यध्यान का अवलंबन लेकर बैठ जाते हैं, वे ही शुक्लध्यान को ध्याने के लिये समर्थ हो सकते हैं और इन धर्म्यध्यानी, शुक्लध्यानी मुनियों के ही परमसमाधि सिद्ध होती है। प्रश्न-आज भरत क्षेत्र में यदि यह परम समाधि नहीं है, तो यहाँ इसका उपदेश क्यों किया गया है ? उत्तर-आपका कहना सच है, यद्यपि उत्तम संहनन के अभाव में आज निश्चयधर्म्यध्यान रूप से और शुक्लध्यानरूप से वह समाधि नहीं है, फिर भी व्यवहार धर्म्य ध्यानरूप से कथंचित् गौणरूप से स्वस्थान अप्रमत्त मुनियों के बह समाधि हो सकती है। दूसरी बात यह है कि उपदेश तो ज्ञान का हेतु होने से चौदहों गुणस्थानों का और चारों प्रकार के शुक्लध्यानों का भी शास्त्र में देखा जाता है। परम समाधि
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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