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________________ नियमसार-प्राभूत तस्मिन् प्रीतिर्जायते, तत्प्राप्युपाये मनः प्रयतते, कवा कथं में सिद्धयेत् ? इति भावना बलवती भवति । तथा कतितम ध्यान में भविष्यतीति निर्णये जाते सति तदभ्योसश्च क्रियते भव्यवरपुण्डरीकेण । उक्तं च देवैरेव भरहे दुस्समकाले, धम्मज्माणं हवेइ साहस । तं अप्पसहावठिवे, ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी' । तात्पर्यमेतत्-अधुना अवतिमां ध्यानं स्वरूपाचरणाश्रितमसम्भवमेव, मुनीनां कथंचित् भवेदपि । उक्तं च __ तवसुबवदवं चेदा माणरहधुरंधरो हवे जम्हा । नया पसानिमा जयं माणं समन्भसह ॥ रूप ध्यान के ज्ञान से उसमें प्रीति उत्पन्न होती है, उसके प्राप्ति के उपाय में मन प्रयत्नशील होता है। और कब कैसे मुझे यह ध्यान सिद्ध होगा? ऐसो भावना बलवती होती है। उसी प्रकार से इन ध्यानों में से मुझे कौन सा ध्यान हो सकेगा ? ऐसा निर्णय हो जाने पर भव्यजीव उस ध्यान का अभ्यास भी करते हैं। श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही कहा है-- भरतक्षेत्र इस दुष्षम काल में साधुओं को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्म्यध्यान होता है, किंतु जो ऐसा नहीं मानते, वे अज्ञानी हैं । तात्पर्य यह हुआ कि इस समय अव्रती श्रावकों के स्वरूपाचरण के आश्रित ध्यान असम्भव ही है । मुनियों के कथंचित् हो भी सकता है । कहा भी है-- तप, श्रुत और व्रतों को धारण करने वाले महापुरुष ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाले हो सकते हैं। इसलिये आप मुनिजन प्रयत्न चित्त होकर ध्यान का अभ्यास करो। इस प्रकार से गाथा का अभिप्राय जानकर धर्म्यध्यान की सिद्धि के लिए तपश्चरण, श्रुत और महाव्रत को धारण कर प्रयत्नपूर्वक अपनो चर्या के ध्यान का अभ्यास आपको करते रहना चाहिये । १. मोक्षपाहुड़ मापा । २. द्रव्यसंग्रह।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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