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________________ नियमसार-प्राभृतम् ३५१ तेनालम्बितपाणिजितगतिर्नासाप्रदृष्टी रहः संप्राप्तोऽतिनिराफुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः ।। जिन इव विहरति पक्षमासषण्मासवर्षपर्यन्तमपि प्रतिमायोगैकलीनो भवितुमहति, स एव जिनकल्पी कथ्यते । उषतं च वेवसेनाचार्येण--- दुविहो जिणेहिं कहिओ जिणकप्पो तह य थविरकप्पो य । सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स ॥११९॥ जलयरिसणवा-याई गमणे भग्गे य जम्म छम्मासं। अच्छति णिराहारा काओसग्गेण छम्मासं ॥१२१।। एयारसंगधारी एआई धम्मसुक्काहाणी । बत्तासेसकसाया मीणवई फंदराबासी ॥१२२॥ बहिरंतरगंथचुवा णिण्णेहा णिप्पिहा य जइवरणो। जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणारे ॥१२३॥ एकांत में खड़े हैं। ऐसे ध्यान में एकाग्ररूप से स्थित जिनराज आदिनाथ अत्यंत निराकुल होकर ध्यान करते हुये जयशील होवें । यह जिनका लक्षण है, जो जिन के समान विहार करते हैं, पक्ष, माह, छह माह और वर्षपर्यंत भी प्रतिमा योग में एक लीन हो सकते हैं, वे ही जिनकल्पी कहलाते हैं। श्री देवसेन आचार्य ने भी कहा है जिनेन्द्रदेव ने दो प्रकार के मुनि कहे हैं--जिनकल्पी और स्थविरकल्पी । उनमें से वह जिनकल्प उत्तमसंहननधारी मुनि के होता है। वर्षा ऋतु में पानी बरसने से सब तरफ गमन रुक जाने से वे मुनि आहार रहित हुये कायोत्सर्ग से छह महीने तक स्थिर खड़े हो जाते हैं । ग्यारह अंग के पाठी, धर्म-शुक्ल याती, सर्वकषायों से रहित, मौनव्रती, गिरि कंदराओं में निवास करते हैं । बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेहरहित, निःस्पृह, यतियों में श्रेष्ठ वे मुनि 'जिन'के समान सदा विहार करते हैं, इसीलिये ये जिनकल्प में स्थित श्रमण जिनकल्पी कहलाते हैं। अर्थात् जिन-तीर्थंकर के समान एकाकी विहार करने में समर्थ छह मास तक भी ध्यान करने वाले ऐसे महामुनि जिनकल्पो कहलाते हैं । १. पमनन्दिपंचविंशविका, १० १, श्लोक १-२ । २, भावसंग्रह ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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