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________________ ३५० नियमसार-प्रामृतम् उक्तं च पूज्यपादस्वामिना जनेभ्यो वाक ततः स्पंदो मनसश्चित्तविभ्रमाः। भवन्ति तस्मात् संसर्ग जनयोगो ततस्त्यजेत् ॥ जिनकल्पिमुनेः किं लक्षणम् ? प्राग जिनस्य स्वरूपं पश्यतु कायोत्सर्गायतांगो जयति जिनपति भिसूनुमहात्मा, मध्याह्न यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजति स्मोप्रमूर्तिः ॥ चक्र कर्मेधनानामतिबटु दहतों दूरमौदास्यवातस्फूर्जरसध्यानवह्नरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिगः ॥ नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्रोप्यं न किंचिद् वृशो दृश्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न । श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है जनों के संपर्क से बचन बोलना होता है उससे मन में स्पंदन होता है पुनः चित्त में चंचलता हो जाता है, इसलिये योगो जनता का साथ छोड़ देवे । प्रश्न-जिनकल्पी मुनि का क्या लक्षण हैं ? उत्तर-पहले 'जिन'का स्वरूप देखिये नाभि राजा के पुत्र जिनराज ऋषभदेव जयशील होवें, जो दीक्षा लेकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुये थे, तब मध्याह्न काल में उनके ऊपर से होकर जब सूर्य निकलता था, तब वह ऐसा शोभायमान होता था कि मानों भगवान उदासीनता रूपी वायु के द्वारा ध्यानरूपी अग्नि को प्रज्वलित करके अपने कर्मरूपी इंधन के समूह को जला रहे हैं। उस अग्नि कणों में से एक स्फुलिंग-तिलंगा ही ऊपर चला गया है। भगवान् ध्यान में हाथ को लटकाये हुये हैं, दोनों पैर स्थिर जमाकर रक्खे हैं, नासा के अग्रभाग पर दृष्टि रखी है और एकांत में खड़े हुये हैं, सो आचार्यदेव उनकी स्तुति करते हुये कहते हैं कि भगवान् को अब हाथ से कुछ करना शेष नहीं रहा है, इसीलिये उन्होंने अपने दोनों हाथ लटका रखे हैं। पैरों से अब चलना भी नहीं रहा है, अतः दोनों पैर स्थिर रखकर खड़े हैं। आँखों से कुछ देखना नहीं रहा, अतः दोनों नेत्र नासा के अग्रभाग पर लगाये हैं । कानों से कुछ सुनना नहीं रहा है अतः १. समाधिशतक, श्लोक ७२ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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