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________________ १५८ नियमसार-भाभृतम् एतादृशीणां फायक्रियाणां निवृत्तिः अभावः निरोधन सा कायगुप्तिः व्यवहारनयेन निविश्यते कथ्यते जिनेन्द्रदेवैः इति । अनया समस्या कायदा नामिति ज्ञास्वा समाहितचेतोभिः कायाप्तिः परिपालनीया भवतिः ॥६८॥ व्यवहारलयेन त्रिगुप्तीनां स्वरूप प्रतिपय निश्चयनवेन ता एव प्रतिपादयितुमनमस्तापवुभयगुप्तिस्वरूपमाहुः-- जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ बदिगुत्ती ॥६९॥ मणस्स जा रायादिणि यत्ती तं मणोगत्तो जाणीहि-मनसो या रागाविनिवृत्तिः, रागद्वषादिभावानामभावः तो मनोगुप्ति जानीहि त्वं भोः शिष्य ! अलियादिणियत्ति वा मोणं वा बदिगुत्ती होइ-अलोकादिनिवृत्तिः वा मौनं वा वाग्गुप्तिः भवति अनृतादिवचनानामभावः अथवा मौनग्रहणं सा वानगुप्तिरुच्यते । तद्यथा-रागद्वेषादिशुभाशुभभावानां अंत:करणात अभावः सकलविमल इस प्रकार की कायसंबधी क्रियाओं का रोकना वह कायगुप्ति जिनेंद्रदेव ने व्यवहारनय से कही है। इस कायगुप्ति से साधुओं को कायबल ऋद्धि उत्पन्न हो जाती है। ऐसा जानकर आपको एकाग्नचित्त होकर कायगुप्ति का पालन करना चाहिए ॥६८॥ व्यवहारनय से तीन गुप्तियों का स्वरूप प्रतिपादित करके निश्चयनय से उन्हीं को प्रतिपादित करने की इच्छा रखते हुए आचार्यदेव इस गाथा में दो गुप्तियों का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-(मणस्स जा रायादिणियत्ती तं मणोगुत्ती जाणीहि) मन में जो रागादि भावों का अभाव होना है उसे तुम मनोगुप्ति जानो (वा अलियादिणित्ति वा मोणं वदिगुत्ती होइ) और असत्यादि वचन से निवृत्त होना या मौन रखना सो वचनगुप्ति है ।।६९।। टोका--मन से जो राग द्वष आदि भावों का अभाव है, हे शिष्य ! तुम उसे मनोगुप्ति जानो। और असत्य वचन आदि को छोड़ना या मौनग्रहण करना सो वचनगुप्ति है। उसी को कहते हैं—रागद्वेष आदि शुभ-अशुभ भावों का अंतःकरण से १. मूलाचार अ० ५, गाथा १३५ । यही फी पही गाथा है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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