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________________ २४८ नियमसार- प्राभृतम् षडावश्यक क्रियासु समयोल्लंघनं कृतिकर्मविधिना न करणं वा विराधना एव । तथाहि - वंद सिकरात्रिकप्रतिक्रमणयोः चतसृणां सिद्धप्रतिक्रमणवीरच्चतुविशतिभक्तीनां पाठः कर्तव्यो दण्डकोच्चारणसहितेः । न केवलं भक्तीनां पाठो न च केवलं दण्डstearरणमात्रं वा संप्रति क्रियाकलापग्रन्ये यथा विधिरुपलभ्यते, तथैव विधिरावारसारग्रन्थस्य कर्तुः वीरनन्विसूरिणः, प्रभाचन्द्राचार्यस्य अनगारधर्मामृतकर्तुश्च माम्य एव दृश्यते । पश्चिमरात्रिकस्वाध्यायं निष्ठाप्य विशुद्धिं कृत्वा पश्चात् रात्रिकप्रतिक्रमणं कर्तव्यं सूर्योदयात्प्रागेव । तबनु पौर्वाह्निक देववंदना विधिना सामाfunक्रिया करणीया । एतत्सर्वमपि विधानं मूलाचारादिप्रन्थादवलोकनीयम् । मयाअराधनानामग्रभ्ये स्पष्टतया लिखितमपि द्रष्टव्यमस्ति । आराधनाश्चतस्रो दर्शनज्ञानचारित्र तपोभेदेन । एतद्व्यवहाराराधनाबलेन या काचिदाराधना स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिरूपा सैवाराधनीया भवति । छह आवश्यक क्रियाओं में जो समय का उल्लंघन करना या कृतिकर्म विधि से न करना है, सो भी विराधना है । जैसे कि — देवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति - इन चार भक्तियों का पाठ दण्डकपाठ के उच्चारण सहित करना चाहिये । केवल चार भक्तियों का पाठ कर लेना या केवल दण्डकसूत्रों के पाठ का उच्चारण मात्र कर लेना ही प्रतिक्रमण नहीं है । वर्तमान में 'क्रियाकलाप' नामक पुस्तक में जो विधि उपलब्ध हो रही है, वही विधि 'आचारसार' ग्रन्थ के कर्ता श्रीवीरनदि आचार्य ने कही है, टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य ने तथा अनगारधर्मामृत के कर्ता ने भी कही है । अर्थात् इन ग्रन्थकर्ताओं को भी वही विधि मान्य है, ऐसा देखा जा रहा है। पिछली रात्रि के स्वाध्याय का निष्ठापन करके दिक्शुद्धि करे, पश्चात् सूर्योदय से पहले हो रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिये । अनंतर पौर्वाह्निक देववंदना की विधि से सामायिक क्रिया करनी चाहिये। यह सभी विधान मूलाचार आदि ग्रंथों से देखना चाहिये। मैंने भी " आराधना" नाम के ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से लिखा है, वह भी देखने योग्य है । आराधनायें चार हैं-- दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तप आराधना ! इस व्यवहार आराधना के बल से जो अपनी शुद्ध आत्मा में निर्विकल्पसमाधिरूप निश्चय-आराधना है, वही आराधने योग्य है ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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