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________________ नियमसार-प्राभृतम् २८३ इदि णाणी चितए-इति तत्त्वविचारकाले निजात्मध्यानकाले च ज्ञानी वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी चितयेत् भावयेत् शुद्धोपयोगपरिणतौ अनुभवेच्चापि । श्रीसमंतभद्रस्वामिनोक्तं ज्ञानस्य एलान् । तथाहि.... उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यावानहानयोः' । आधस्य केवलज्ञानस्य उपेक्षामात्रमेव फलं पूर्णवीतरागत्यात्, शेषस्य चतुर्विधज्ञानस्य फल ग्रहणयोग्यवस्तुन आदानं त्याज्यवस्तुनो हानं चापि । षष्ठगुणस्थानतिनः संयतस्य बुद्धिपूर्विका हानोपावानक्रिया अस्ति । तत उपरि परमोपेक्षालक्षणसंयमिनामबुद्धिपूर्वकमेव हानमुपादानं सगाविभावानां द्रव्यकर्मास्त्र वाणां च; न चाहारादिवाद्यपदार्थानाम्। किंच, शुद्धोपयोगिनां मुनीनां निर्विकल्पच्यानेऽनंतचतुष्टयस्वभाव आत्मैव ध्येयोऽस्ति, इति ज्ञात्वा निश्चयनय समाधान--शुद्धनय से हो सम्भव है, न कि अशुद्धनय से । इस प्रकार तत्त्व के विचार के समय और निज आत्मा के ध्यान के समय वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी मुनि ऐसा चितवन करे-भावना करे और शुद्धोपयोग में स्थित होकर ऐसा अनुभव करे। क्योंकि श्री समंतभद्रस्वामी ने ज्ञान के फलों के निरूपण के प्रसंग में कहा है ___ "आदि के ज्ञान का फल उपेक्षा है और शेष चारों ज्ञानों का फल ग्रहण करना और छोड़ना है" | अर्थात् आदि के केवलज्ञान का फल उपेक्षामात्र ही है। क्योंकि वहाँ पूर्णवीतरागता हो चुकी होती है। शेष मति, श्रुति, अवधि और मनः पर्यय इन चारों ज्ञानों का फल यह है कि ग्रहण योग्य वस्तु को ग्रहण करना और त्यागने योग्य को छोड़ना । __छठे गुणस्थानवर्ती संयमी मुनी के यह त्याग और ग्रहण को किया बुद्धिपूर्वक होती है। इसके ऊपर के स्थानों में परमोपेक्षा-लक्षण संयमियों के अबुद्धिपूर्वक ही रागादि भोवों को और द्रव्यकर्मों के आस्रव को छोड़ने वाली तथा ग्रहण करने वाली क्रिया होती है, न कि आहार आदि बाह्य पदार्थों को छोड़ने व ग्रहण करने आदि की। इसके अतिरिक्त, शुद्धोपयोग मुनियों के निर्विकल्प ध्यान मे अनंतचतुष्टय. १. बाप्तमीमांसा ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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