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नियमसार-प्रामृतम्
माश्रित्य निजकुद्धात्मतस्थं प्रत्यहं भावनीयं भवति । अत्र रागादिविकाराणां प्रत्याख्यानं सूचितं वर्तते ॥९७॥
पुनरपि प्रकारान्तरेण 'सोहं' शब्दस्यार्य विवृ एवंति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः-
पयडिद्विदि अशुभदेहि वज्जिदो अप्पा |
सोहं इदि चितिज्ञो तत्थेव य कुणदि थिरभावं ।। ९८ ।।
स्याद्वावचन्द्रिका
पर्याडट्ठिदि अणुभागष्पदेसबंधेहि वज्जिदो अप्पा - प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशअंधेरेषां नानाभेवोपभेदैश्च यजितो मुक्तो यः कश्चित् आत्मा स परमात्म-शब्देन स्तूयसे । सोहं इदि चितिज्जो - स एवाहम् इति चितयन्, तत्थेव कुणदि थिरभाव - तत्रैव च करोति स्थिरभावम् । निश्श्चयनयेनैभिर्बन्धेः शून्यः संसारावस्थायामपि मम भगवानात्मा देहदेवालये विराजते । सरागसंयतो मुनिः प्रव्यकर्मणो बंधोदय सत्वेभ्यः
स्वभावी आत्मा ही ध्येय है-- ऐसा जानकर निश्चयनय का आश्रय लेकर प्रतिदिन निज शुद्धात्मतत्त्व की भावना करते रहना चाहिये । यहाँ पर रागादि विकारों का प्रत्याख्यान सूचित किया है ||१७||
श्री कुन्दकुन्ददेव पुनरपि प्रकारांतर से 'सोहं' इस शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हैं---
अन्वयार्थ - - ( पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसबंधेहि वज्जिदो अप्पा ) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश -- इन बंधों से रहित जो आत्मा है (सोहं इदि चितिज्जो सो ही मैं हूँ, ऐसा चितवन करते हुये (य तत्थेव चिरभावं कुणदि) मुनिराज उसी में स्थिरभाव करते हैं ।
टीका - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार प्रकार के बंध हैं, इनके अनेक भेद और उपभेद हैं । इन कर्मों से रहित जो कोई आत्मा है वही परमात्मा शब्द से स्तुत होता है । निश्चयनय की अपेक्षा से संसार अवस्था में भी मेरी आत्मा इन सभी बंधों से शून्य है । वह भगवान् आत्मा इस शरीर रूपी देवालय में विराजमान है । "सो हो में हूँ" ऐसा चितवन करते हुये मुनि उसी आत्मा में स्थिरभाव करते हैं ।