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नियमसार-प्रोभूतम्
"अट्टरुदबजमाणं वोस्सरामि, धम्मसुक्कझाणं अभुमि ।"
एवंविधं प्रतिक्रमणं कृत्वा कृत्वा साधव. कस्मिंश्चिद्विव्वसे नियमेन परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपा भवन्ति ।
इतो विस्तरः--निदानं विहाय इष्टवियोगजानिष्टसंयोगजवेदनाजन्यं त्रिविधमपि आर्तध्यानं षष्ठगुणस्थानपर्यन्तं संभवति । हिंसानंदिमृषानंदिचौर्यानन्दिविषयसंरक्षणानंदिरौद्रध्यानं चतुर्विधमपि पंचगुणस्थानपर्यन्तमेव न चाग्ने। धHध्यानं चतुर्थगुणस्थानादारभ्य सप्तमपर्यन्तम्, सक्ष्मसापरायनामदशमगुणस्थानपर्यंतं वा परमायमें श्रूयते । शुक्लध्यानम् अष्टगुणस्थानादेकादशमगुणस्थानावा आरभ्य अयोगिकेवलिनां भगवतां चरमसमय सान्दत् जायते। संपनि दुकाले शुदउध्यानाभावात् धर्म्यध्याने एव स्थातुं शक्यते ।
यतिप्रतिक्रमण में भी श्री गौतमस्वामी ने कहा है
"आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़ता है, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान को स्वीकार करता हूँ।"
इस प्रकार के प्रतिक्रमण को करके साधु किसी न किसो दिन नियम से परमार्थ प्रतिक्रमणस्वरूप हो जाते हैं।
अब इसका विस्तृत कथन करते हैं
निदान को छोड़कर इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज और वेदनाजन्य-ये तोनों ही आर्त ध्यान छठे गुणस्थानपर्यंत संभव हैं । हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, और विषयसंरक्षणानंदी-ये चारों प्रकार के रौद्र ध्यान भी पंचमगुणस्थान तक हो सकते हैं, आगे नहीं।
____धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से प्रारंभ करके सातवें गुणस्थानपर्यंत होता है, अथवा सूक्ष्मसांपरायनामक दशवें गुणस्थान तक भी होता है--ऐसा षटखंडागमसूत्र में कथन आया है। शुक्ल ध्यान आठवें गुणस्थान से लेकर अथवा ग्यारहवें गुणस्थान से प्रारंभ कर अयोगकेवली भगवान के चरमसमय पर्यंत होता है।
वर्तमान दुःषमकाल में शुक्ल ध्यान के नहीं होने से 'धर्म ध्यान' में हो स्थित होना शक्य है। १. प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयो। २. तत्वार्थवार्तिक अ० ९ सूत्र ३७ की टीका में 1 ३, धवला, पुस्तक १३, पृ० ७४ ।।