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नियमसार-प्राभृतम् एवं गाथाचतुष्ट येन ध्यानमयावश्यकक्रियां प्रतिपाद्य यदि तादृग्योग्यता न भवेत्तर्हि किं कर्तव्यमिति समाधान गाथाद्वयेन कृत्वा षड् गाथाभिस्तृतीयोऽन्तराधिकारो गतः ।
वचनध्यापार निरुध्य भाभद्रत कथं साहनामांति ने सारा संसान श्रीसूरिवर्याःगाणाजीवा णाणाकम्भ णाणाविह हवे लद्धी। तम्हा वयण विवादं सगपरसमएहि वज्जिज्जो ॥१५६॥
णाणाजीवा-नानाजीवा भोगकुभोगकर्मभूमिजभेवात् असस्थावराविभेदाद्वा । णाणाकम्म-नानाविधकर्मप्रकृतिबंधोदयसत्वभवात् कर्माण्यनेकप्रकाराणि । णाणाविहं लद्धी हवे-नानाविधा लब्धयश्च भवेयुः। तम्हा सगपरसमए हि वयणविवादं वज्जिज्जो-तस्मात् हेतोः स्वकपरसमयः वचनविवावो वर्ज नीयो भवति ।
इतो विस्तरः-भव्याभन्यभेवाद द्विविधा जीवाः । तेषु अभव्यजीषा द्रव्य
इस प्रकार चार गाथाओं द्वारा ध्यानमय आवश्यक क्रिया का प्रतिपादन करके, यदि वैसी योग्यता न होवे तो क्या करना चाहिये ? इसका समाधान दो गाथाओं द्वारा करके, छह गाथाओं द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ।
वचन व्यापार को रोक कर मैं मौनव्रत केसे साधू ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव समाधान देते हैं
अन्वयार्थ-(णाणाजोवा जाणाकम्मं णाणाविहं लद्धी हवे) अनेक प्रकार के जीव हैं, कर्म भी अनेक प्रकार के हैं और लब्धि के भी नाना प्रकार हैं। (तम्हा सगपरसमयेहि वयणविवादं बज्जिज्जो) इसलिये स्वसमय और परसमय के द्वारा वचनों का विवाद छोड़ देना चाहिये ।
____टोका-भोगभूमिज, कुभोगभूमिज, कर्मभूमिज की अपेक्षा अथवा त्रसस्थावर आदि की अपेक्षा जीवों के बहुत भेद हैं। नानाविध कमों के बंध, उदय और सत्त्व की अपेक्षा कर्मों के भी बहुत भेद हैं और लब्धियाँ के भी अनेक प्रकार हैं। इसलिये स्वसमय और परसमय का निमित्त लेकर वाद-विवाद नहीं करना चाहिये।
इसी का विस्तार करते हैं-भव्य और अभव्य के भेद से जीव दो प्रकार