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नियमसार-प्राभृतम् त्याचागमस्य च नाविसंवादः पूर्वापरविरोधसभायात् ।
परं च स्यात्पदलाञ्छित एष आगमः तदोषरहित एव । पुनरपि किंविशिष्टः ? शुद्धः । तवपि कस्मात् ? पापसूत्रवत् हिंसाविपापक्रियाप्रतिपादनाभावात्, भगवतो वचनं मोक्षसंसारतत्कारणतत्त्वप्रतिपादक तवध प्रत्यक्षाविप्रमाणेन न बाध्यते अतः जिनवचनमेवागमो न चान्यः इत्यर्थः ।
एवंगुणविशिष्ट आगमः तीर्थकरपरमदेवादेव प्रभवति । गणधरदेवास्तस्य विष्यध्वनि श्रुत्वावधार्य च द्वादशांगश्रुतरूपेण प्रश्नन्ति । पुनः अन्येऽपि आचार्याः परम्परानुसारेणैव निरूपयन्ति, अस्य भरतक्षेत्रेऽस्मिन् दुःषमकाले ये केचन आरातीयाचास्तेिऽपि नद्या नवघटे जलमित्र तमेवागमं जगदुः।।
___एतदायातम्-भावश्रुतस्य अर्थपदानां च करिस्तीर्थकराः, तेभ्यो गणधराः श्रुतं गृह्णन्ति श्रुतपर्यायेण च परिणमन्ति, अतस्ते द्रव्यश्रुतस्य कर्तारः।
___ इत्यादि प्रकार के आगम में एकरूपता नहीं है . क्योंकि पूर्वापर विरोध दिख रहा है। किन्तु 'स्यात्पद' से चिह्नित यह आगम इन दोषों से रहित ही है । पुनः वह आगम कैसा है ? शुद्ध है। पाप सूत्र के समान हिंसादि पाप क्रिया का प्रतिपादन नहीं करता । अथवा शुद्ध अर्थात् निर्दोष है। क्योंकि यह युक्ति और शास्त्र से अविरोधी कथन करने वाला है । भगवान् जिनेंद्र देव के वचन मोक्ष, मोक्ष के कारण, संसार और संसार के कारण इन चार तत्वों के प्रतिपादक हैं, वे वचन प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से बाधित नहीं होते हैं, इसलिए जिन वचन ही आगम हैं अन्य के बचन आगम नहीं हैं यह अर्थ हुआ।
इन गुणों से सहित आगम तीर्थंकर परमदेव से ही उत्पन्न होता है । गणधर देव उनकी दिव्यध्वनि को सुनकर अवधारण करके पुन: द्वादशांग श्रुत रूप से रचते हैं । अनंतर अन्य भी आचार्य उसी परंपरा से ही शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर उसी का निरूपण करते हैं । इस भरत क्षेत्र में आज पंचमकाल में जो कोई आचार्य हुए हैं उन्होंने भी नदी के जल को नये घड़े में भर लेने के सदृश उसी आगम को ही कहा है ।
___ इससे यह निष्कर्ष निकला कि भावभुत के तथा अर्थपदों के कर्ता तीर्थकर भगवान् हैं । गणधर देव उनसे श्रुत को ग्रहण करते हैं पुनः ग्रहण किए हुए से वे स्वयं श्रुत पर्याय से परिणत हो जाते हैं इसलिए वे द्रव्यश्रुत के कर्ता हैं। १. मायकुमुदचन्द्र, पृष्ठ ६३४ ।