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नियमसार - प्राभृतम्
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परभाव परिचत्ता - यो महायोगीश्वरः सर्वविकल्पजनितपरभावं परित्यज्य, निम्मल सहावं अपाणं झादि- शुद्ध निश्चयनयापेक्षया सर्वथा कर्ममलकलंककसमूहैरस्पृष्टं सहजविमलकेवलज्ञानदर्शन सुखवीर्यप्रमुखानन्तगुणपुंजस्वभावं परमात्मपदप्रतिष्ठित निजात्मानं ध्यायति । सो हु अप्पवसो होदि स शुद्धोपयोगी साधुः खलु स्फुटं स्वात्मन्येकलीनतामुपगतः सन्नात्मवशो भवति । तस्स दु कम्मं आवासं भांति तस्यैव परमसमाधिपरिणतस्य तु कर्म क्रियां स्वानुभूतिमावश्यकं भणेति । के ते ? गणधर देवादय इति ।
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इती विस्तरः- ये केचिद् भव्यजीवाः प्राग्धनगृहस्त्री पुत्रादिपरवस्तूनि त्यक्त्वा पंचपरमेष्ठिनां शरणं गृह्णन्ति त एव निर्ग्रन्यतपोधनाः पुनः पुनः रूपातीत ध्यान बलेन स्वशक्तिसंचयं कृत्वा पश्चात् सिद्धपरमेष्ठिनोऽप्यालम्बनं मुक्त्वा केवलं शुद्धज्ञानदर्शनस्वरूपमात्मानं ध्यायन्ति तेषां निर्विकल्पध्यान स्थितानामीदृशी निश्चलावस्था
,
आत्मवश होते हैं । ( तस्स दु कम्मं आवासं भणंति) उनके अनुष्ठान को आवश्यक कहते हैं
ऐसे
अनंत गुणों के पुंज
टीका -- जो महायोगीश्वर सर्वविकल्पों से होने वाले पर भाव को छोड़कर शुद्ध निश्चय की अपेक्षा से सर्वथा कर्ममल कलंक रूप पंकसमूह से अस्पृष्ट, सहज विमल केवल ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य हैं प्रमुख जिनमें, स्वरूप परमात्मपद में प्रतिष्ठित निज आत्मा को ध्याते हैं, निश्चित ही अपनी आत्मा में एकलीनता को प्राप्त होते हुए आत्मवश होते हैं । उन्हीं परमसमाधि में परिणत मुनि की क्रिया - अपने आत्मा को अनुभूति ही आवश्यक कही जाती है ।
वे शुद्धोपयोगी साधु
ऐसा कौन कहते हैं ?
गणधर देव आदि ऐसा कहते हैं ।
इसी का विस्तार करते हैं- जो कोई भव्य जीव पहले धन, घर, स्त्री, पुत्र आदि पर वस्तुओं को छोड़कर पंचपरमेष्ठी की शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे ही निग्रंथ तपोधन पुनः पुनः रूपातीत ध्यान के बल से अपनी शक्ति का संचय करके पश्चात् सिद्धपरमेष्ठी का भी अवलंबन छोड़कर केवल शुद्धज्ञान दर्शनस्वरूप आत्मा को ध्याते हैं, उन निर्विकल्प ध्यान में स्थित मुनियों के ऐसो निश्चल अवस्था हो