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नियमसार-प्राभृतम् आत्मन एकरवं प्रदर्शयन्तः कथयन्त्याचार्याः
एगो य मरदि जीवो, एगो र जीददि रू: एगस्स जादि मरणं, एगो सिज्झदि णीरयो' ॥१०१॥ स्याद्वावचन्द्रिका--
जीवो एगो य मरदि-अयं जीवोऽनादिसंसारे परिभ्रमन सन एकाच म्रियते एकाकी एव नियते कश्चिवपि पुत्रो बांधवो वा न सार्घ गच्छति । सयं एगो य जीवदि-स्वयं एकश्च इन्द्रियबलायुःश्वासोच्छवासरूपैर्बाह्यप्राणैनिदर्शनरूपान्तरंगप्राणैश्च जीवति । एगस्स जादि मरणं-एकस्य जायते मरणं बाह्यप्राणैवियोमरूपम् । अथवा "जाइमरण" इति पाठांतरेण एकस्यैव जीवस्य जातिः जन्म वर्तते कश्चिदपि साधं नायाति एकस्यैव मरणं विद्यते । एगो गोरयो सिज्झदि-पुनः एकः एकाको इसका तात्पर्यार्थ यहो निकलता है कि ये ज्ञान , दर्शन, प्रत्याख्यान आदि गुण आत्मा में विद्यमान हैं । उन्हें जानने को, उनपर श्रद्धान करने की और उन्हें प्रगट करने को आवश्यकता है---उसी का नाम चारित्र है। अथवा रत्नत्रय के प्रसाद से और प्रत्याख्यान आदि इन निश्चय आवश्यक क्रियाओं से ही वे गुण प्रगट किये जा सकते हैं।
अब आचार्यदेव आत्मा के एकत्व को दिखलाते हुए कहते हैं-----
अन्वयार्थ--(एगो य जीयो मरदि सयं एगो य जीवदि) यह जीव अकेला ही मरता है और स्वयं अकेला ही जीता है। (एगस्स जादि मरणं णारयो एगो सिज्झदि) इस अकेले के ही जन्म और मरण है, यह अकोला ही कर्मरज रहित होकर सिद्ध होता है।
___टोका-यह जीव अनादि संसार में भ्रमण करते हुए अकेला हो मरता है कोई भी पुत्र, मित्र अथवा बांधव इसके साथ नहीं जाते है । यह इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवासरूप बाह्य प्राणों से, तथा ज्ञानदर्शन रूप अंतरंग प्राणों से, स्वयं अकेला ही जीता है । इस अकेले जीव के ही बाह्य प्राणों के वियोगरूप से मरण होता है । अथवा "एगस्स जाइमरणं" ऐसा भी पाठ है । उसके अनुसार अकेले ही जीव का जन्म होता है, कोई भी साथ में नहीं आता है और अकेलेका ही मरण होता १. मूलाधार अध्याय २ गाथा ४७ ।