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________________ ४६६ नियमसार-प्राभृतम् नयेन भेदकल्पनानिरपेक्षशद्ध द्रव्याथिकनयेन वा निजानन्वसुखस्वरूपे आत्मनि तन्मयत्वे सति स्वात्मानमेव जानन्ति पश्यन्ति, न च परज्ञेयसमूहम् । तथैव व्यवहारनयेन भेदकल्पनासापेक्षाशुद्धद्रव्याथिकनयेन वा सर्व जानन्ति पश्यन्ति च । तथैवोक्तं श्रीगौतमस्वामिभिः यः सर्वाणि चराचराणि विषिवद् द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सर्वदा । जानीते युगपत् प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वोराय तस्मै नमः। अत्र गाथायां व्यवहारनयो भेदकारक एवं गहीतव्यो न च पराश्रितः। किंच, केवलिना ज्ञानं पराश्रितं नास्ति, प्रत्युत तज्ज्ञाने सर्व प्रतिबिम्बीभवति वर्पणवत् । न ते भगवन्त ईहापूर्वकं जानन्ति, मोहाभावात् । भी शुद्ध निश्चयनय से, अथवा भेदकल्पना से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से निजानन्दसुखस्वरूप आत्मा में तन्मय हो जाने पर अपनी आत्मा को ही जानतेदेखते हैं, न कि पर ज्ञेय समूह को। उसी प्रकार व्यवहारनय से, या भेदकल्पना को अपेक्षा रखने वाले अशुद्ध द्रव्याथिक नय से सब कुछ जानते और देखते हैं । यही बात श्री गौतम स्वामी ने कही है--- जो विधिवत् सभी चर-अचर-जीव अजोव आदि द्रव्यों को, उनके गुणों को और भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालों में होने वाली उन द्रव्यों को सर्व पर्यायों को सदा काल प्रतिक्षण युगपत् जान लेते हैं । इसीलिये वे "सर्व जानातीति सर्वज्ञः" इस व्युत्पत्ति के अनुसाप 'सर्वज्ञ' कहलाते हैं । ऐस सर्वज्ञ, जिनेश्वर उन महान् वीर भगवान् को मेरा नमस्कार होवे ।। यहाँ पर गाथा में भेद को करने वाला व्यवहारनय ग्रहण करना चाहिये, न कि पराश्रित । क्योंकि केबली भगवान का ज्ञान पराश्रित नहीं है, बल्कि उनके ज्ञान में सभी पदार्थ प्रतिबिंबित होते रहते हैं, दर्पण के समान । वे भगवान् इच्छापूर्वक कुछ नहीं जानते, क्योंकि उनके मोह का अभाव हो गया है। १. बीरभक्ति ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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