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________________ नियमसार-प्राभृतम् ४६५ नामधेयाः षट्त्रिंशत् प्रकृतीः क्षपयति । पुनः स एष सूक्ष्मसाम्पराये गत्वा संज्वलनलोभं निपात्य मोहनीयं सर्वथा निर्मूल्य तत उत्पत्य क्षीणमोहे स्थित्वा निद्राप्रचलाज्ञानावरणपंचकदर्शनावरणचतुष्कान्तरायपंचकं षोडशप्रकृतीः प्रलयं नीत्वा सर्वपदार्थसार्थसाक्षात्करणक्षमो विघटितजलधरपटलप्रकटितगभस्तिमालो इव ज्वलितज्ञानमूर्तिः केवली भवति । उक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धान्तदेवै: केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो। णवकेवललद्धग्गमसुजणियपरमप्पववएसो' ॥३॥ इमे केवलिनो भगवन्तः सर्वलोकालोकं ज्ञेयं जानन्तः पश्यन्तोऽपि शुद्धनिश्चय आतप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, होर, नपुंसग देशा, नोवेर, हारा, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया ये छत्तीस प्रकृतियाँ हैं। पुनः वे ही महामुनि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में पहुंचकर बचे हुये एक संज्वलन लोभ को नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार वे मोहनीय कर्म का सर्वथा निर्मूलन करके आगे क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर वहाँ पर निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार और अंतराय की पाँच, ऐसी सोलह प्रकृतियों को समाप्त कर संपूर्ण पदार्थों के समूह को साक्षात् करने में समर्थ मेघ पटल के हटने पर प्रकट हुए सूर्य के समान, जाज्वल्यमान ज्ञान को मूर्तिस्वरूप केवली हो जाते हैं । थीनेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्यदेव ने कहा है केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरण समूह से अज्ञानसमूह को नष्ट करके नवकेबल लब्धि को प्राप्त करने वाले वे भगवान् परमात्मा इस नाम को प्राप्त कर लेते हैं। ये केवली भगवान सर्व लोक अलोकरूप ज्ञेय पदार्थ को जानते देखते हुये १. गोम्मटसार जीवकाण्ड ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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