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________________ नियमसार-प्राभृतम् परमात्मानमात्मानं केवलज्ञानी भगवानहन् परमात्मा जानाति, पश्यति । केन नयेन ? णियमेण-निश्चयनयेन शुद्धद्रव्याधितशुद्धनयेनेति । इतो विस्तरः-ये केचिद् महायोगिनो भेदाभेदरत्नत्रयबलेन वीतरागनिविकल्पपरमसमाधेः पुनः पुनः अभ्यासं कुर्वन्ति, ते एव क्षपफश्रेण्यारोहणे सक्षमाः सन्तः त्रिषष्टिप्रकृतीः निर्मल्य केवलिनो भवन्ति । इमाः प्रकृती: नाशयितुं क्रमः प्रवर्यते । असंयतसम्यग्दृष्टिदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तनामचतुर्गणस्थानेष्वन्यतमे अनंतानबंधिचतुष्क दर्शनमोहत्रिकं च क्षयं नीत्वा क्षायिकसम्यग्दष्टि: जायते । स यदि चरमदेहस्तहि तस्यायत्नसाध्यो नरकतिर्यग्वायुषामभावोऽस्ति । स एव परमानन्दपीयूषपिपासुः महामुनिः क्षणिभारद्यापूर्वकरणेऽयूर्वपरिणामबलेनापूवंशक्ति संचिन्वन् अनिवृत्तिकरणे स्थित्वा नरकद्विकतिर्यद्विकविकलत्रिकस्त्यानमृद्धिप्रचलाप्रचलानिद्रानिद्रोद्योतातपैकेन्द्रियसाधारणसूक्ष्मस्थायराप्रत्याख्यानावरणचतुष्कप्रत्याख्यानावरणचतुष्कनपुंसफस्त्रीवेदहास्थरत्यरतिशोकभयजुगुप्सापुरुषवेदसंज्वलनक्रोधमानमाया - अर्थात् शुद्ध द्रव्य के आश्रित शुद्धनय से अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानंद लक्षण स्वरूप अपनी आत्मा को ही जानते-देखते हैं । __ इसी को विस्तार से कहते हैं-जो कोई महायोगी, भेद-अभेद इन दोनों रत्नत्रय के बल से बोतराग निर्विकल्प समाधि का पुनः पुनः अभ्यास करते हैं, वे क्षपकश्रेणी में आरोहण करने में समर्थ होते हुये वेसठ प्रकृतियों का निर्मूल नाश कर केवली हो जाते हैं । इन प्रकृतियों के नाश करने का क्रम दिखलाते हैं-- __ असंयतसम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक में अनंतानुबंधी को चार और दर्शनमोह को तीन ऐसी सात प्रकृतियों का नाश कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । यदि ये चरम शरीरी हैं, तो इनके नरकायु, तियंचायु और देवायु का अभाव बिना प्रयत्न के ही हो जाता है । वे ही परमानंद अमृतपान के इच्छुक महामुनि क्षपक श्रेणी में चढ़कर अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्व परिणाम के बल से अपूर्व शक्ति का संचय करते हुये अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में स्थिर होकर छत्तीस प्रकृतियों का नाश कर देते हैं । उनके नाम बताते हैं-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यम्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, स्त्यानमृद्धि, प्रचलाप्रचला, निद्रानिद्रा, उद्योत,
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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