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________________ ४८ नियमसार-प्राभूतम् प्रकीर्णकसूत्रेषु एकैकावश्यकस्य पृथक् पृथक् सूत्रग्रन्याः सन्ति । अथवा प्रथमे आचारांग एव मुनीनां मूलगुणेषु षडावश्यकाः षड् मूलगुणा उच्यन्ते । इमाः क्रिया याचिकोपांशुमानसभेदेन श्रेधा कतुं शक्यन्ते । मुनयोऽन्यकार्येभ्यो निवृत्य मौनमालम्ब्य सामायिकस्तधवन्दनादिसंबन्धिपाठोच्चारणं कृत्वा यदि क्रियाः कुर्वन्ति, तहि ता वाचिकक्रियाः कश्यारी : उपयोगमा बलेव धामसक्रिया स्यन्ति । ये केचिद् योगिनो योगाभ्यासे तिष्ठन्ति, ते मानसक्रियां कुर्वन्ति । कवाचिद् ध्यानावस्थायामन्तजल्पमपि त्यक्त्वा परमसमाचौ तिष्ठन्ति। तत्रैवेमाः क्रिया निश्चयनयन परिपूर्णाः भवन्ति । न चावश्यकहानिस्तत्र, प्रत्युत ध्यानसिद्धयर्थमेव सर्वाः क्रिया गृह्यन्ते । अतस्त एव योगिनो निजकार्य मोक्षपुरुषार्थ स्वावश्यकक्रियां वा साधयितुं समर्था भवन्ति । ननु धर्मामृते वन्दनाया द्वात्रिंशद्दोषेषु शब्दोच्चारणमकृत्वा देववन्दनां कुर्वतः साबोर्मूकनामा दोषो निगद्यते । चौदह प्रकीर्णक सूत्रों में एक-एक आवश्यक क्रिया के पृथक्-पृथक् सूत्रग्रंथ हैं । अथवा प्रथम आचारांग में ही मुनियों के मूल गुणों में छह आवश्यक मूलगुण कहलाते हैं । ये क्रियायें वाचिक, उपांशु और मानसिक के भेद से तीन प्रकार से की जा सकती हैं । मुनिराज अन्य कार्यों से अपने को हटाकर मौन का अवलम्बन लेकर सामायिक, स्तव, बंदना आदि संबंधी पाठों को उच्चारण करके यदि क्रियायें करते हैं, तो वे वाचिक क्रियायें कहलाती हैं । उपयोग की स्थिरता के बल से मानस क्रियायें होती हैं। जो कोई योगी योग के अभ्यास में स्थित होते हैं, वे मानस क्रिया करते हैं, कदाचित् ध्यानावस्था में अंतर जल्प को भी छोड़कर परम समाधि में स्थित होते हैं। वहीं-ध्यान में ये क्रियायें निश्चयनय से परिपूर्ण होती है, किंतु वहाँ आवश्यक को हानि नहीं होती, बल्कि ध्यान की सिद्धि के लिये ही सभी क्रियायें कही गई हैं । इसलिये वे ही योगी निजकार्य--मोक्ष पुरुषार्थ को अथवा आवश्यक क्रियाओं को सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं। ___शंका-अनगारधर्मामृत में वंदना के बत्तीस दोषों में शब्दों का उच्चारण न करके देववंदना करनेवाले साधु को मूक नाम का दोष कहा है।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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