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________________ २०६ नियमसार-प्राभृतम् श्रुतं मे आयुष्मन्तः ! इह भरतक्षेत्रे निश्चयेन उपर्युक्तविशेषणविशिष्टेन भगवता महतिमहावीरेण श्रमणानां कृते पंचमहावतादीनि मुनिधर्मत्वेन उपवेशितानि । एवमेव श्रावकाणां कृते च द्वादशवतानि मद्यमांसमधुवानि च श्रावकधर्मत्वेन उपटेशितानि । इति हेतोः हा देशव भावनातरनत्रयम् अस्माकम् । ननु समितिगुप्त्यावयः संवरतत्वे गृहीताः स्वामिभिः, पंचमहाव्रतानि तु आस्रवतत्त्वेऽतस्तानि व्रतानि मोक्षस्य कारणानि कथं भवन्तीति चेत् ? न; उक्तं च श्रीमदकलंकदेवैः "तत्र पुण्यायो व्याख्येयः प्रधानत्वात् तत्पूर्वकत्वात् मोक्षस्य ।" जयधवलाकारैरपि प्रोक्तं यत् "घटिकायंत्रजलवत् अनुसमयमसंख्यगुणश्रेणीप्रमितकर्मणां निर्जराहेतुः महावतानि इति । तथाहि "घडियाजल व कम्मे अणुसमयमसंखगुणियसेढीए । णिज्जरमाणे संते महत्वईणं कुदो पावें ॥६०॥" अर्थात्-हे आयुष्मन्तों भव्यों! सुनो, इस भरत क्षेत्र में निश्चय से उपयुक्त विशेषण से विशिष्ट भगवान् महति महावीर स्वामी ने मुनियों के लिये पाँच महाव्रत आदि को मुनिधर्मरूप से उपदिष्ट किया है । इसी प्रकार श्रावकों के लिए भी बारह व्रतों का और भद्य मांस मधु से बर्जित का श्रावक धर्मरूप से उपदेश दिया है । इस हेतु से हम लोगों को व्यवहार रत्नत्रय उपादेय ही है । शंका---समिति गुप्ति आदि को श्री उमास्वामी ने संवर तत्त्व में लिया है और पाँच महानत को आस्रव तत्त्व में लिया है, अतः ये व्रत मोक्ष के कारण कैसे होंगे? ____समाधान--ऐसा नहीं है, श्रीमान् अकलंकदेव ने कहा है "यहाँ पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि यह प्रधान है और इस पूर्वक ही मोक्ष होती है।" जयधवला टीका के कर्ता श्रीबीरसेनाचार्य ने भी कहा है कि घटिकायंत्र जल के समान ये महाव्रत समय-समय पर असंख्यात गुणश्रेणी प्रमाण कर्मों की निर्जरा में हेतु हैं। तथाहि "घटिकायंत्र के जल के समान एक एक समय में असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होते रहने पर महाव्रती मुनियों को पापबंध कैसे होगा ? १. तत्त्वार्थवात्तिक अ० ७, उत्थानिका । २. जयववला पु० १, पृ० १७७ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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