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________________ नियमसार-प्रामृतम् कयनेन च माथाद्वयं, विभावस्वभावपर्याययोः स्वरूपकथनमुख्यत्वेन चैका गाथा, पुनः विभावपर्यायाणां भेदपूर्वकलक्षणप्रतिपादनेन गाथाद्वयं इति अष्टगाथाभिः जीवस्य स्वभावविनापर्यायाम प्रतिपाधि पुनः निश्चयव्यवहारनयद्वयन जीवस्य कर्तृत्वं भोक्तत्वं च प्रतिपादितं भवति । अनंतरमुपसंहाररूपेण एकेन सूत्रेण द्रव्याथिकनयात् जोवानां पर्यायशून्यत्वं पर्यायाथिकनयाच्च पर्यायसहित्वमिति दशभिः सत्रः तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । यदि कोई कहे कि द्रव्य तो त्रिकाल में शुद्ध है अर्थात् सदा शुद्ध था, अभी शुद्ध है और आगे भी शुद्ध रहेगा, किंतु पर्याय वर्तमान में अशुद्ध हैं, यह कथन कथमपि संगत नहीं है । यदि शुद्धनय से द्रव्य शुद्ध है तो पर्यायें अशुद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि गुणपर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है । द्रव्य से पर्याय अथवा पर्यायों से द्रव्य अलग नहीं है । इसी बात को इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। दूसरी बात यह है कि सुनय यद्यपि इंद्रियों के समान अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करते हैं, फिर भी ये अन्य नय के विषय का निराकरण नहीं करते हैं, किंतु उनकी अपेक्षा रखते हैं | इसीलिये ये सम्यक्नय हैं। किंतु जो अन्य नय के विषय की उपेक्षा करने वाला है-निराकरण करने वाला है, वह दुर्नय है। यह बात भी इस टीका में कही गई है। इस प्रकार से जीव के स्वरूप को स्वभाव-विभाव ज्ञान गण की मुख्यता से “जीवो उवओगमओ" इत्यादि तीन गाथायें हुई। पुनः स्वभाव-विभाव दर्शन गुण की प्रधानता से और पर्याय के दो भेदों के कथन की सूचना से दो गाथायें कही गई हैं। इसके बाद विभाव-स्वभाव पर्याय के स्वरूप को कहने वाली एक गाथा हुई । पुनः विभाव पर्यायों के भेद सहित लक्षण बतलाते हुये दो गाथायें हुई। इस प्रकार आठ गाथाओं द्वारा जीव के स्वभाव-विभाव गुण-पर्यायों का प्रतिपादन करके पुनः निश्चय और व्यबहार नय के द्वारा जोव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद उपसंहार रूप से एक गाथा के द्वारा द्रव्याथिक नय से जीवों के पर्यायें नहीं हैं और पर्यायाथिक नय से हैं—यह बात कही गई है । इस तरह दस गाथा-सूत्रो से यह तीसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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