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नियमसार प्राभृतम् एतज्ज्ञात्वा शुद्धनयेन स्वं द्रव्यं पर्यायश्च शुद्धमेवेति श्रद्दधानः, शुद्धसिद्धपरमात्मनो भक्ति प्रकुर्वाणश्च व्यवहारनयन निजात्मा पवित्रीकर्तव्यः ।
श्रीमहावीरस्वामिनां शासनमविच्छिन्नप्रवाहेण दुष्षमकालस्यान्तपर्यंत नेतुं सक्षमगौतमगणधरप्रभृत्यंतिमवीरांगजमुनिनायेभ्यो नित्यं में नमोऽस्तु । ... एवं जीवस्य स्वरूपं स्वभावविभावज्ञानगुणमुख्यत्वेन च "जीवो उवओगमओ" इत्यादि गाथात्रयं, पुनः स्वभावविभावदर्शनगुणप्रधानेन पर्यायलक्षणभेदद्वय
कर्मों की उपाधि से रहित शुद्ध सिद्धपर्याय भी सिद्धों में ही हैं, संसारी जीवों में नहीं । अथवा शुद्धपर्यायाथिक नय से या शक्तिरूप से वह संसारी जीवों में भी है। उसी प्रकार अशुद्ध नर नारक आदि पर्याय भी चतुर्गति वाले संसारी जोवों में ही हैं। कथंचित् भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा सिद्धों में भी इन्हें कहना शक्य है।
___ इस प्रकार के कथन से सभी जीव द्रव्यदृष्टि से स्वभाव-विभाव दोनों प्रकार की पर्यायों से शून्य ही हैं, और पर्यायदृष्टि से दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं, यह सूचित किया गया है।
ऐसा जानकर शद्धनय से अपना द्रव्य और अपनी पर्यायें शुद्ध ही हैं, ऐसा श्रद्धान करते हुये, शुद्ध सिद्ध परमात्मा की भक्ति करते हुये, व्यवहार नय से अपनी आत्मा को पवित्र करना चाहिये ।
भावार्थ-इस गाथा में समझने का विषय यह विशेष है कि द्रव्याथिक नय चाहे शुद्ध हो या अशुद्ध, वह पर्यायों को नहीं ग्रहण करता है, और पर्यायार्थिक नय चाहे शुद्ध हो या अशुद्ध, वह द्रव्य को नहीं जानता है। अत: द्रव्याथिक नय से सभी जीच चाहे सिद्ध हो या संसारो, वे पर्यायों से रहित हैं और पर्यायाथिक नय से चाहे सिद्ध हों या संसारी, सभी जीव दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं।
अब इन दोनों नयों की अपेक्षा से व्यक्तिरूप और शक्तिरूप से जीवों में भेद करना ही होगा। व्यक्तरूप से सभी सिद्ध शुद्ध द्रव्य और शुद्ध पर्याय वाले हैं और सभी संसारी अशुद्ध द्रव्य पर्याय वाले हैं । शक्तिरूप से सभी संसारी जीव भी शुद्ध द्रव्य शुद्ध पर्याय वाले हैं। तथा भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सभी सिद्ध अशुद्ध द्रव्य पर्याय वाले हैं।