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नियमसार-प्राभृतम् ___जीवादिबहित्तच्चं हेयं-जीवादिबहिस्तत्त्वं हेयं स्वजीवद्रव्यादतिरिक्त अन्यजीवाजीवादिबाह्यतत्वं हेयम् । तहि किमुपादेयम् ? अप्पणो अप्पा उपादेयं-आत्मनः आत्मा उपादेयम् । कयंभूतोऽयमात्मा ? कम्मोपाधिसभुमवगुणपज्जाधेहि वांदरित्तोकर्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायः व्यतिरिक्तः फर्मोपाधिसमुत्पन्ननानाविधविभावगुणपर्यायैः रहितः इति ।
इतो बिस्तरः- मूलरूपेण तत्वं द्विविधं बहिस्तत्त्वमन्तस्तत्वमिति । स्थद्रव्या भिन्मानन्तजीवराशिः पुद्गलादिपञ्चाजीवद्रव्याणि च तत्सर्व बाह्यं तवं हेयं त्यक्तुं योग्यम् । आत्मनः स्थात्मतत्त्वमेव उपादेयम् । फर्मोदयनिमित्तेन विभावरूपेण परिणमिताः ये केचित् मतिज्ञानादिगुणाः नरनारकाविपर्यायाश्च, एभिर्विनिर्मुक्तं शुद्धात्मतावं तदेवोपादेयमिति । ___ अत्रायमभिप्रायः--शुद्धनिश्चयनयेन संसारावस्थायामपि निजात्मतत्त्वं द्रव्यकर्मनोकर्मभावकर्मभिरस्पृष्टं निर्मलं ज्ञानघनस्वरूपं चिच्चैतन्यचमत्कारपरिणतिरूपं
पाधिसमुन्भवगुणपज्जायेहि वदिरित्तो) कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुए गणपर्यायों से रहित (अप्पा) आत्मा (अप्पणो उवादेयं) आत्मा के लिए उपादेय है ।।३।।
टोका-अपने जीव द्रव्य से अतिरिक्त अन्य जीव-अजीव आदि बाह्य तत्त्व हेय है और आत्मा के लिए आत्मा उपादेय है, जो कि कर्मों की उपाधि से उत्पन्न अनेक प्रकार की विभाव गुण पर्यायों से रहित है।
उसी को कहते हैं--मूलरूप से तत्त्व के दो भेद हैं
बाह्य तत्त्व और अंतस्तत्त्व । अपने आत्म द्रव्य से भिन्न अनंत जीबराशि है, पुद्गल आदि पाँच अजीव द्रव्य हैं। ये सब बाह्य तत्त्व हेय हैं-छोड़ने योग्य हैं । आत्मा को अपना आत्म तत्त्व ही उपादेय है। कर्मोदय के निमित्त से हुए विभाव भाव से परिणत जो कोई मतिज्ञान आदि गुण और नर-नारक आदि पर्यायें हैं, इनसे रहित शुद्ध आत्म तत्त्व ही उपादेय है ।
यहाँ अभिप्राय यह है कि शुद्ध निश्चय नय से संसार अवस्था में जो निजात्म तत्व है, वह द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से अस्पर्शित है, निर्मल है, ज्ञानघनस्वरूप है, चिच्चैतन्य की चमत्कार परिणतिरूप है, नित्य है, वही उपादेय है।