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नियमसार-प्राभृतम् अथवा "निश्चयनयेन वर्शनमात्मा च आत्मानमेव पश्यति" इति गाथां पठित्वा एव वदति । परंतु-"अयं विशेषः--दर्शनेनात्मनि गृहीत सन्यात्माविनाभूत ज्ञानमाप गृहोतं भवति, ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवति ।" अतो नास्ति दोषोऽभेवनयेन निश्चयनयेन वेति । "पेच्छन्तस्स दु णाणं पच्चक्वं" इति कथनेनापि दर्शनगुणसहितस्यात्मन एव ज्ञान प्रत्यक्षं सूचितं भवति ।।
तात्पर्यमेतत्--ये मुमुक्षको महामुनयः स्वस्य दर्शनोपयोगगुणेन शुद्धबुद्धनित्यनिरंजनज्ञानदर्शनसुखवीर्यगुणमंडितनिजपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनि • श्चयरत्नत्रयपरिणतपरमसमाधौ स्थित्वा निजकारणसमयसारस्वरूपमात्मानमेव पश्यन्तोऽवलोकयन्तोऽनुभवन्तो ध्यान कुर्वन्ति, त एव स्वपरार्थसाथमेकस्मिन्नेघ क्षणे युगपत्पश्यन्ति ।
विषय में प्रवृत्त नहीं होता है, ऐसे सिद्धांत के कथन का आश्रय लेकर ही की है। अथवा निश्चयनय से दर्शन और आत्मा आत्मा को देखते हैं, ऐसी गाथा पढ़कर ही कह रहा है। परंतु यहाँ यह विशेष है कि दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण हो जाने पर आत्मा से अविनाभूत, अर्थात् आत्मा के बिना न होने वाला ऐसा ज्ञान भी गृहीत हो जाता है । इसलिये अभेदनय से अथवा निश्चयनय से कोई दोष नहीं है ।
यहाँ पर गाथा में जो यह कहा है कि "देखते हुये का ज्ञान प्रत्यक्ष है" इस कथन से भी दर्शन गुण सहित आत्मा का ही ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, ऐसा सूचित किया गया है।
____तात्पर्य यह हुआ कि जो मुमुक्षु महामुनि अपने दर्शनोपयोग गण से शुद्ध, बुद्ध , नित्य, निरंजन, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणों से मंडित निज परमात्म तत्त्व का सम्यक श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में आचरण रूप चारित्र, ऐसे निश्चयरत्नत्रय से परिणत परमसमाधि में स्थित होकर निजकारण समयसाररूप आत्मा को ही देखते हुये अवलोकन करते हुये अनुभव करते हुये---ध्यान करते हैं, वे ही स्व और पर पदार्थसमूह को एक ही क्षण में युगपत् देख लेते हैं ।
१. प्रवचनसार, गाथा २३ । २. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४ की टीका का संश, पृष्ठ १९१ ।
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