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________________ ४६२ नियमसार-प्राभृतम् गुणस्थानत्रये तरतमभावेनाशुभोपयोगः, चतुर्थपंचमषष्ठगुणस्थानत्रये तरतमभावेन शुभोपयोगस्ततोऽप्रमत्ताविक्षीणकषायषदके तरतमभावेन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानये शुद्धोपयोगफलमिति प्रवचनसारे तात्पर्यवृत्तौ प्रोक्तमस्ति । तदभिप्रायेण नायं शुद्धोपयोगाधिकारः, प्रत्युत शद्धजीवाधिकारो मोक्षाधिकारो वा कथयितुं शक्यते । तत्रैकोनत्रिंशत्सूत्रेषु तावत् "जाणदि पस्सदि सवं' इत्यादिकं गाथासूत्रमादौ कृत्वा सूत्रद्वयेन केवलिभगवतां लक्षणं कृत्वा “णाणं परप्पयासं" इत्यादि माथापंचकेनानेकान्तदृष्ट्या ज्ञानदर्शनयोः स्वरूपं च कथ्यते । तदनु "अप्पसरूबं पेच्छदि" इत्याविना गाथाषटकेन एकान्तवादिनां मतं निराकृत्य केबलिनो ज्ञानदर्शनमया एवेति प्रतिपाद्यते । ततो "जाणतो पस्संतो' इत्यादिना गाथानतुष्टयेन केवलिभगवतां ज्ञप्तिवचनगमनस्थानाविक्रिया अनिच्छाविका एवेति वयते । तत्पश्चात् 'उस्स खयेण' इत्यादिना गाथानवकेन निर्वाणपवलक्षणं तत्पदप्राप्तनिर्व तीन भेद करते हैं, तब मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तर तम भाव से अशुभोपयोग है। चौथे, पाँचवें और छठे इन तीन गुणस्थानों में तरतम भाव से शुभोपयोग है। इसके आगे अप्रमत्तविरत से लेकर क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में तरतम भाव से शुद्धोपयोग है । इसके अनंतर सयोगी जिन और अयोगी जिन, इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है। ऐसा प्रवचनसार में तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा हुआ है । इस अभिप्राय से यह शुद्धोपयोग अधिकार नहीं है । प्रत्युत इसे शुद्ध जीवाधिकार या मोक्षाधिकार कहा जा सकता है । इस अधिकार में उनतीस गाथा सूत्रों में सबसे पहले "जाणदि पस्सदि सव्वं" इत्यादि रूप गाथासूत्र को आदि में करो दो सूत्रों द्वारा केवली भगवान का स्वरूप बतलाकर "णाणं परप्पयासं” इत्यादि पाँच गाथाओं द्वारा अनेकांतदृष्टि से ज्ञान और दर्शन का स्वरूप कहा गया है। इसके बाद "अप्पसरूवं पेच्छदि" इत्यादि रूप छह गाथाओं द्वारा एकांतवादी के मत का निराकरण करके केवली भगवान ज्ञानदर्शनमय ही हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। पुनः "जाणतो पस्संतो" इत्यादि रूप चार गाथाओं द्वारा केवली भगवान् को जानने, बोलने, चलने और ठहरने आदिरूप क्रियायें बिना इच्छा के ही होती हैं, ऐसा वर्णन किया गया है। इसके बाद "आउस्स खयेण" इत्यादि रूप से नव गाथाओं द्वारा निर्वाणषद
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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