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नियमसार-प्राभुतम णाणं अप्पपयास णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ।
अप्पा अपपयासो, णिच्छयणथएण दसणं तम्हा ॥१६५।।
वहारणयेण णाणं परप्पयासं-व्यवहारनयेन जानं परप्रकाशं ज्ञानं परवस्तुनि प्रकाशयति जानाति इति परप्रकाशकं कथ्यते । तम्हा दंगणं-तस्माद् हेतोदर्शनमपि व्यवहारनयेन परप्रकाशकं भवति । कबहारणयेण अप्पा परप्पयासोव्यवहारनयेन आत्मा परप्रकाशको वर्तते । तम्हा दंगणं-तस्माद् हेतोः दर्शनमपि परप्रकाशकमेव । किंच, व्यवहारनयस्य परपदार्थनिमित्तापेक्षत्वात् ज्ञानं दर्शनम् आत्मा च व्यवहारनयनेव परद्रव्याणि जानम्ति, न च निश्चयनयेन । तहि निश्चयनयेन ज्ञानं कं जानाति ? तदेवोच्यते-णिच्छयणयएण णाणं अप्पपयासं--निश्चयनयेन ज्ञानमात्मप्रकाशं स्वस्वरूपं स्वस्यात्मानं वा प्रकाशयति जानाति । तम्हा सणं-तस्मात् कारणात् दर्शनमपि आत्मानमेव जानाति, पश्यति, अबलोकता तथैव णिचन्द्रयजयएण अप्पा अप्पपयासो-निश्चयनयापेक्षयात्मात्मप्रकाशको भवति, स्वमात्मानमेव जानाति । तम्हा देसणं-तस्मात् कारणात् दर्शनमपि निश्चयनयेनात्मप्रकाशकमेवास्मानमेव पश्यति न च परद्रव्यगुणपर्यायसमूहमन्यच्चराचरं जगत् इति । दसणं) तथा निश्चयनय से आत्मा आत्मप्रकाशी है, इस हेतु से दर्शन भी आत्मप्रकाशी है।
टोका- व्यवहारनय से ज्ञान पर प्रकाशक है, चूंकि वह पर वस्तुओं को प्रकाशित करता है-जानता है, इसलिये परप्रकाशी कहलाता है । इस हेतु से दर्शन भी व्यवहारनय से परप्रकाशक है। व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है । इसी कारण दर्शन भी परप्रकाशक है, चूँकि व्यवहारनय परपदार्थ के निमित्त की अपेक्षा रखता है। अतः ज्ञान, दर्शन और आत्मा व्यवहारनय से ही परद्रव्यों को जानते हैं, न कि निश्चयनय से।
शंका--तो फिर निश्चयनय से ज्ञान किसको जानता है ?
समाधान--उसे ही कहते हैं। निश्चयनय से ज्ञान अपने आपको या अपनी आत्मा को प्रकाशित करता है--जानता है, इस कारण से दर्शन भी आत्मा को ही जानता है, देखता है----अवलोकित करता है । निश्चयनय से आत्मा स्वयं आत्मा को प्रकाशित करता है, इसी कारण दर्शन भी निश्चयनय से आत्मा का