SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ नियमसार-प्राभृतम् मिच्छा मे दुक्कडमिस्यादिवचनोच्चारणरूपं प्रतिक्रमणम्, सिद्धभक्तियोगिभक्तिपूर्वक गुरुसाक्षिणा चतुविधाहारमन्यत्किमपि वा वस्तुत्यजनं वचनमयं प्रत्याख्यानम्, कालावधि कृत्वा यत्किमपि त्यागो नियमः क्रियानुष्ठान वा तदपि वचनोच्चारणरूपम्, गुरुणा सकाशे स्वापराधनिवेदनमालोचनमपि वचनमयम् । तं सव्वं सज्झाउं जाणतत्सर्व स्वाध्यायं जानीहि । तद्यथा-वचनोच्चारणयविका याः प्रसिक्रमणाविक्रियास्ताः सर्वा निश्चयनयाश्रितावश्यक क्रियापेक्षया स्वाध्यायः कथ्यते न चावश्यकम् । अत्र परमनिश्चयावज्याप्रकरणे निविकल्पध्यानमयमेवावश्यकं निगयते । साधूनां ध्यानं स्वाध्यायश्च में एव क्रिये प्रधाने स्तः। श्रीमद्रामसेनदेवैरप्यवाचि स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्ते ध्यानात स्वाध्यायमामनेत् । ध्यानस्वाध्यायसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते॥ क्वचित् स्वाध्यायस्य माहात्म्यं अवता तब ध्यानसमानमेवेति कथितम्, तत्र वचन प्रतिक्रमण है। सिद्धभक्ति, योगभक्ति पूर्वक गरु की साक्षी से चार प्रकार के आहार का अथवा अन्य किसी भी वस्तु का त्याग करना वचनमय प्रत्याख्यान है। काल की अवधि करके जो कुछ भी त्याग करना अथवा क्रियाओंका अनुष्ठान करना वह भी वचनोच्चारणरूप नियम है। गुरु के पास में अपने अपराध का निवेदन करना वचनमय आलोचना है । इन सबको तुम स्वाध्याय समझो। उसे ही कहते हैं-वचनोच्चारणपूर्वक जो प्रतिक्रमण आदि क्रियायें की जाती हैं, वे सब निश्चयनय के आश्रित आवश्यक क्रियाओं को अपेक्षा से स्वाध्याय कहलाती हैं, किंतु वह आवश्यक नहीं हैं। यहाँ परम निश्चय आवश्यक के प्रकरण में निर्विकल्प ध्यानमय को ही आवश्यक कहते हैं। साधुओं के लिये ध्यान और स्वाध्याय ये दो ही क्रियायें प्रधान हैं। श्री रामसेनदेव ने भी कहा है मुनि स्वाध्याय से ध्यान का आश्रय लेवे और ध्यान से स्वाध्याय का आश्रय लेवे । ध्यान और स्वाध्याय की संपत्ति से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है। कहीं पर स्वाध्याय के माहात्म्य को कहते हुये वह ध्यान के समान ही है, ऐसा
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy