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________________ २४३ नियमसार-प्राभृतम् क्षरमाला वा । प्रतिक्रमितव्यं द्रव्यं च परित्याज्यं मिथ्यात्वायतीचाररूपं भवति'। इति प्रोक्तं श्रीवसुनंदिवेवैः तात्पर्यमेतत-प्रतिक्रामकप्रतिक्रमणप्रतिक्रमितव्यत्रयभेदान् सष्ठतया ज्ञात्वा तद्रूपेण च परिणतीभूय ये मुनयोऽविचलचारित्रा भवन्ति, त एव शुद्धोपयोगमयं निश्चयप्रतिक्रमणं संप्राप्य संसारसमुद्रं लीलया संतरन्तीति निर्णीय भवता स्वावश्यकक्रियास प्रमादो न कर्तव्यः; कदाचित् प्रमाद जाते सति प्रतिक्रमणबलन तदोषोऽपसारणीयः ॥८॥ व्रत आदि में हुए अतीचारों से विरक्त होना प्रतिक्रमण है, अथवा व्रत-शुद्धि के निमित्त जो (उच्चार्यमाण) अक्षर-समूह हैं, वह प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमितव्य अर्थात् प्रतिक्रमण करने योग्य, मिथ्यात्व आदि अतीचाररूप जो द्रव्य है वे परित्याग करने योग्य है । ऐसा मूलाचार में श्रीवसुनंदि आचार्य द्वारा कहा हुआ है। तात्पर्य यह हुआ कि (१) प्रतिक्रमण करने वाले, (२) प्रतिक्रमण और (३) प्रतिक्रमण के योग्य वस्तु--इन तीनों भेदों को अच्छी तरह जानकर और इस रूप से परिणत होकर जो मुनिगण निश्चल चारित्रवान होते हैं, वे ही शुद्धोपयोगमय 'निश्चय प्रतिक्रमण' को प्राप्त करके संसार-समुद्र को लीलामात्र में पार कर लेते हैं। ऐसा निर्णय करके आपको अपनी आवश्यक क्रियाओं में प्रमाद नहीं करना चाहिये । यदि कदाचित् प्रमाद हो जाये तो प्रतिक्रमण के बल से उन दोषों को दूर करना चाहिए । भावार्थ-यहाँ पर निश्चयप्रतिक्रमण अधिकार में सर्वप्रथम भेदज्ञान के अभ्यास का उपदेश देकर प्रतिक्रमण को कहने को प्रतिज्ञा की गई है, क्योंकि जो मनि मूलाचार के अनुसार अपने दैनिक जीवन में प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में पूर्णतया निष्णात हो चुके हैं, वे ही निश्चयप्रतिक्रमण को प्राप्त करने के लिए भेदविज्ञान की भावना भाते रहते हैं । इसी दृष्टि से यहाँ टीका में प्रतिक्रमण के भेद-प्रभेदों का वर्णन करके प्रतिक्रमण आदि का संक्षिप्त लक्षण दिया गया है। उक्त प्रतिक्रमण के लक्षण, काल आदि को विशेष रूप से समझने के लिये मूलाचार, अनगारधर्मामृत, आचारसार आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिये तथा इन प्रतिक्रमणों को करने वाले ऐसे आचार्यसंघों में रहकर उनकी चर्या का अवलोकन करना चाहिए ॥८२।। १. मूलाचार अध्याय ७, गाथा ११७ की टीका ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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