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________________ नियमसार -प्राभृतम् नामकर्मोदयसद्भावात् कदाचित् नरकगलौ उत्पद्य शारीरिक मानसिकागंतुकवे दनाभिव्यंथितः सन् नारकोति नामधरो बभूव । कदाचित् तिर्यक्षु नानाविधजन्म गुल्छन् सन् पशुपक्षि की पतंग वृक्ष गुल्म पिपीलिकातुरगवृषभादिविविधनामधारी चाभवम् । काचित् किंचिच्छुभोदयेन मनुष्यगतौ आगत्य दीनदरिद्रविकलांगो भूपतिखगपत्यादिविभूतिमान् वा भूत्वा दुःखं सुखं चानुभवन् विषयेषु मुग्धो हिताहितविवेकविकलः सकलसुखप्राप्तये न किमपि अज्ञाषितम् । कदाचित् अकामनिर्जरादिपुण्यकर्मसंचयन देवो भूत्वा सम्यक्त्वाभावे तत्रापि न तृप्तिमवाप्नुवम् । यद्यपि आसु चतुर्गतिषु परिभ्रमाम्यहं तथापि निश्चयनयेन भवविपाकगतिपर्यायरहितोऽहम् । २३२ यदाहं मोहतिमिराहरणात् सम्यक्त्वलब्धि प्राप्नोमि तदा चतुर्गतिपर्यायेभ्यः स्वमात्मानं पृथक्कर्तुमीहमानः पुनः पुनर्भेवाभ्यासं करोमि । अस्मिन् मनुष्यस्य देहदेवालये भगवान् आत्मा विराजते, तं सिद्धालयं नेतुं प्रयतमानो यत्किमपि जिनदेवैरुपायो विहितस्तमेव गृह्णाम्यहम् । का सद्भाव होने से कभी मैं नरकगति में उत्पन्न होकर शारीरिक, मानसिक और आगंतुक वेदनाओं से पीड़ित होता हुआ "नारकी" इस नाम को धारण करने वाला हो चुका हूँ । कभी तिर्यंचों में अनेक प्रकार के जन्मधारण करता हुआ पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, वृक्ष, गुल्म, चिवटी, घोड़ा, बैल आदि विविध प्रकार के नाम को घरने वाला हुआ हूँ, कदाचित् कुछ शुभकर्म के उदय से मनुष्य गति में आकर दीन, दरिद्री, विकलांगी अथवा राजा, विद्याधर आदि विभूति वाला होकर दुःख और सुख का अनुभव करते हुए विषयों में मूढ़ होकर हित और अहित के विवेक से शून्य हुआ पूर्ण सुख की प्राप्ति के लिए कुछ भी नहीं समझ सका था । कदाचित् अकामनिर्जरा आदि पुण्य कर्म के संचय से देव हो गया, किंतु सम्यक्त्व के अभाव में वहाँ भी तृप्ति को प्राप्त नहीं कर सका । यद्यपि मैं इन चतुर्गति में परिभ्रमण कर रहा हूँ, फिर भी निश्चयनय में भवविपाकी इस गतिपर्याय से मैं रहित हूँ । जब मैं मोहतिमिर के दूर हो जाने से सम्यक्स्त्र लब्धि को प्राप्त कर लेता हूँ, तब चतुर्गति-पर्यायों से अपनी आत्मा को पृथक् करने की इच्छा करता हुआ पुनः पुनः भेद (विज्ञान) का अभ्यास करता हूँ । इस मनुष्य के देह- देवालय में भगवान् आत्मा विराजमान हैं, उसको सिद्धालय में ले जाने के लिए प्रयत्नशील हुआ, श्रीजिनदेव ने जो कुछ भी उपाय बताया है उसी को मैं ग्रहण करता हूँ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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