________________
नियमसार-प्राभृतम् "अणोः कारणत्वादिविकल्पोऽनेकान्तो योज्यः-स्याकारणं स्यात्कार्यमित्यादि । तपणुकाविकार्यप्रादुर्भावनिमित्तत्वात् स्यात्कारणमणुः, भेवावुपजायते इति स्पात्कार्य, स्निग्धरूक्षत्वारिकार्यगुणाधिकरणाद्वा' ।"
अयमुभयरूपोऽपि परमाणुः अतीन्द्रियो वर्तते, इन्द्रियग्रहीतुमशक्यत्वात् । जडस्वरूपो वर्तते ज्ञानदर्शनगुणाभावात्, एतज्ज्ञात्वा ज्ञानदर्शनगुणप्रधाने निजशुद्धास्मन्येव रुचिः कर्तव्या इति ॥२५॥ पुनश्च परमाणोः किलक्षणम् ? इत्यायकायां बुलन्त्याचार्या:
अत्तादि अत्तमज्झं अतंत्तं णेव इंदिए गेझं । अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ॥२६॥
अणु में कारण आदि भेदरूप अनेकांत लगाना चाहिये-वह अणु कथंचित् कारण है, और कथंचित् कार्य है इत्यादि । वह द्वय णुक आदि कार्यों को उत्पन्न करने में निमित्त है, इसलिये "कथंचित् कारण अणु' है और भेद से उत्पन्न होता है इसलिये "कथंचित कार्य अणु' है अथवा स्निग्ध, रूक्ष आदि कार्य गुणों का आधार है, इसलिये भी यह कथंचित् कार्य अणु है।
यह दोनों प्रकार का भी परमाण अतीन्द्रिय है, क्योंकि इसका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करना अशक्य है । यह परमाणु जड़रूप-अचेतन है, क्योंकि इसमें ज्ञानदर्शन गुण का अभाव है। ऐसा जानकर जिसमें ज्ञानदर्शन गुण प्रधान है, ऐसी अपनी शुद्ध आत्मा में ही रुचि करना चाहिये ।।
भावार्थ-परमाणु और अणु दोनों का एक ही अर्थ है। यह पुद्गल का सबसे छोटा हिस्सा है, सो ही आगे बतायेंगे। इसके कारण कार्य की अपेक्षा दो भेद किये गये हैं। जिन परमाणुओं से पृथ्वी, जल आदि भूत-चतुष्टय या धातुचतुष्टय बनेंगे वह 'कारण परमाणु' है, तथा जो स्कंध के भेद होते होते अंतिम अवस्था में आखिरी भाग हो जाता है, वह भेद से अणु बन जाने से 'कार्य परमाणु' माना गया है । यह परमाणु अचेतन ही है ऐसा समझना ।।२५॥
पुनरपि परमाणु का क्या लक्षण है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं
अन्वयार्थ—(अत्तादि अत्तमज्झ अत्तंत्तं) जिसका आत्मा ही आदि है, आत्मा ही मध्य है और आत्मा ही अंत है (इंदिए णेव गेज्झ) जो इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है, १. सस्वार्थवात्तिक अ० ५, सूत्र २५, वात्तिक १६ ।