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________________ -१७ ग्रन्थों नियम कुमुदं विकासयितं चन्द्रोदयः तस्य चन्द्रोदयस्य (अन्धस्य) टीका चन्द्रिका' अर्थात् इस नियम (रत्नत्रय) रूपी कमल को विकसित करने के लिए यह ग्रन्थ (नियमसार) चन्द्रोदय के समान है । इस ग्रन्थ को यह टीका घन्द्रिका (चाँदनी) के समान है । अथवा इसकी व्युत्पत्ति माता जी ने इस प्रकार भी की है "यति करवाणि प्रफुल्लोकतु एकानिशाथिनीनाथत्वात् यतिकैरवचन्द्रोदयोऽस्ति । अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिश्चयनययोव्र्यवहारनिश्चयक्रिययोर्व्यवहारनिश्चयमार्गयोश्च परस्परमित्रत्वात् अस्य विषयः स्याद्वादगीकृतो वर्ततेऽस्य टीका चन्द्रोदयस्य चन्द्रिका इव विभासतेऽनो स्याद्वाद चन्द्रिका नाम्ना सार्थक्यं लभते" अर्थात् साधु रूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये यह ग्रन्थ पूर्णमासी के चन्द्रोदय के समान है और चूंकि इस ग्रन्थ से पद-पद में व्यवहार निश्चयनय, व्यवहार निश्चय क्रियाओं का, व्यवहार निश्चय मार्गों का स्याद्वाद गभित मिन्नता के रूप में वर्णन किया गया है अतः इसकी यह टीका चन्द्रोदय की चन्द्रिका के समान शोभित हो रही है इसलिये इसका नाम 'स्थाद्वादचन्द्रिका' सार्थक है। लिखने का मतलब यह है कि माताजी ने स्वरचित टीका का नाम "स्यावाद चन्द्रिका" बड़ी सूझ-बूम के साथ रखा है। माताजी ने अन्त में जो प्रशस्ति लिखी है वह भी इतिहास के रूप में एक सुन्दर विवेचन है। साथ में साधु संयमियों की संख्या कामी निर्वे किया है। __प्रशस्ति से संबंधित पहले श्लोक में आदि ब्रह्म को नमस्कार किया है। दूसरे श्लोक में २४. तीर्थङ्करों को नमस्कार किया है। तीसरे श्लोक में ९५८०००० वृषभ सेनादि गणधर तथा अन्य संयमियों की वन्दना का है। चौथे श्लोक में ३६००५६५० ब्राह्मो आदि आयिकाओं की वन्दना की है आगे ५ से लेकर ८ श्लोक तक भगवान् महावीर के शासन में होने वाले आचार्य कुन्दकुन्द तथा उन्हीं के सरस्वतीगच्छबलात्कारगण की परम्परा में आचार्य शांतिसागर जी, आचार्य वीरसागर जी, आचार्य शिवसागरजी, आचार्य धर्मसागर जी का परिचय है । पुनः वें श्लोक में श्रीआचार्य देशभूषण जी का वर्णन है । तथा माताजी ने उन्हें अपना दीक्षा गुरु स्वीकार किया है। उसके बाद लिखा है कि महावत को दीक्षा देनेवाले मेरे गुरु वीरसागर जी हैं । पूज्य माता जी ने अपनी विरकि के संबंध में लिखा है बाल्यकाल में मैंने दर्शन आदि की कथाएँ पढ़ी, पद्मनंदि पंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय किया। इनके स्वाध्याय से मैंने ज्ञान वैराग्य की संपदा प्राप्त की। पुनः कुछ बाह्यनिमित्तों को लेकर मुझे संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई । घर में आठ वर्ष और विरक्ताश्चम में ३२ वर्ष तक ज्ञान की आराधना से जो कुछ अमृत मुझे प्राप्त हुआ उस सबको एकत्र करके मैंने इस ग्रन्थ में रख दिया है वह भी मात्र अपने मन की शुद्धि, पुष्टि, तुष्टि और आत्मा की सिद्धि के लिये अन्य कोई कामना नहीं है। इसके बाद माताजी ने संघस्थ आर्यिका माता रत्नमती, शिवमती तथा बाल ब्रह्मचारी मोतीचंदजी, रवीन्द्र कुमार जो एवं बालब्रह्मचारिणी माधुरी, मालती को आशीर्वाद दिया है। इसके बाद जम्बूद्वीप के निर्माण आदि की चर्चा है । उक प्रशस्ति से आवश्यक इतिवृत्त सभी कुछ आ गया है । इस तरह माताजी ने नियमसार को सर्वाङ्ग सुन्दर बना दिया है। समयसार ग्रन्थ को पढ़ने के पहले यदि नियमसार ग्रन्थ का अध्ययन अध्यापन किया जाय तो समयसार को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। माता जो की टीका ने नियमसार को भी अत्यंत सरल बना दिया है । इस टीका का हिन्दी अनुवाद हो जाने से जन साधारण के लिये यह ग्रन्थ और भी अत्यंत उपयोगी हो गया है । पू०
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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