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________________ नियमसार-प्रामृतम् रहितम् ? सत्यम्; यद्यपि संसारावस्थायां अणुगुरुदेहप्रमाणः तच्छरीरमेय आकारस्तस्य, सिद्धावस्थायां चरमशरीरात् किश्चिन्यूनपुरुषाकारो विद्यते अस्य, तथापि निश्चयनयेन परनिमित्तजनिताकारविजितत्वात् सर्वदा शरीरविकलत्वाच्च निराकार आत्मा गीयते आर्षेऽतो नयविवक्षातो न कश्चिद्दोषोऽवकाशं लभते । इदमत्र तात्पर्यम्-पुद्गलद्रव्यसंबंधिवर्णादिगणशब्दाविपर्यायशन्यः, सबंद्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियमनोगतरागादिविकल्पाविषयः सहजविमलसकलकेवलज्ञानदर्शनसुखवीर्यमयश्च यः स एव शुद्धात्मा, त्वया वीतरागनिर्विकल्पध्याने स्थित्वा ध्यातव्यः इति ।।४६॥ गृतादृशो जीन के लोगोयले ? अनि पाने मधुताई वाल्पाचार्याः जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होति । जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ।।४७॥ आकार है, फिर भी निश्चयनय से पर निमित्त से उत्पन्न हुए आकार से रहित होने से और शरीर से विकल होने से आर्ष में आत्मा निराकार कहलाता है । इसलिये नयविवक्षा से हमारे यहाँ कोई दोष अवकाश को प्राप्त नहीं कर सकता है। __ अभिप्राय यह हुआ कि जो जीव पुद्गल द्रव्य से संबंधित वर्णादि गुण और शब्दादि पर्याय से शून्य है, सर्व द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय तथा मन में होने वाले रागादि विकल्प का विषय नहीं है और जो सहज विमल, सकल, केवलज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय है, उसी शुद्धात्मा का तुम्हें वीतराग निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर ध्यान करना चाहिये ॥४६॥ ऐसा जीव किनसे उपमा योग्य है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(सिद्धप्पा जारिसिया) सिद्ध भगवान् जैसे हैं, (भवमल्लिय जीव तारिसा होति) भव के आश्रित हुए जीव वैसे ही हैं। (जेण जरमरणजम्ममुक्का अट्ठागुणालंकिया) जिस हेतु से ये जरा मरण और जन्म से रहित हैं, उसीसे ये आठ गुणों से अलंकृत हैं ।।४७।।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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