________________
३४०
नियमसार-प्राभृतम् नयेन सर्वेऽपि अनंतानंतजीवाः शुद्धा एव, न च नानाविधाः । किञ्चायं नयो वस्तुनः स्वभावमेव गृह्णाति न चौपाधिकं भावम् । यच्च प्रत्यक्षेण दृश्यते तत्सर्व विभावरूपेण निमित्तनैमित्तरूपेण वा परिणतं जीवपुद्गलयोः विभावस्वरूपमेव । न च स्वभावदृष्ट्या किमपि दृश्यते । अथवा यद्भवद्भिः कथितं तत्प्रत्यक्षं कथमपि अपलपितुं न शक्यते तत्तु अशुद्धनयेनेव सर्वम् । अत एप उभयायाधीना देशना परमकारुणिकस्य भगवतो जिनेंद्रदेवस्य ।
___इदमत्र तात्पर्यम्-व्यवहारनयेन जीवाः द्विविधाः संसारिणो मुक्ताश्च, न तु निश्चयनयेन । अतो नयद्वयबलेन परस्परविरुद्धमपि अविरुद्धं कृत्वा ये श्रद्दधते जानन्ति मन्यन्ते घ, त एव सम्यग्वृष्टयः । ये तु एकांतेन जीवं सिद्धसदृशं मन्यन्ते ते मिथ्यादृष्टयः स्वपरवैरिणश्च, न च तेषां मोक्षमार्गत्वं सिद्धचति इति ज्ञात्वा दुरन्समपि नयचक्रं गुरूणां प्रसादेन लब्ध्वा यथाशक्ति चारित्रमवलम्ज्य निजशद्धात्मतत्त्वमभ्यसनीयम् ॥४७॥ शुद्ध हैं, उस नय से संसार और मोक्ष को व्यवस्था नहीं है। उस नय से सभी अनंतानंत जीव शुद्ध ही हैं, न कि अनेक प्रकार के । दूसरी बात यह है कि यह नय वस्तु के स्वभाव को हो ग्रहण करता है, न कि औपाधिक भाव को। जो कुछ भी प्रत्यक्ष से दिख रहा है, वह सब विभावरूप से अथवा निमित्त नैमित्तिक रूप से परिणत हुए जीव पुद्गल का विभाव स्वरूप ही है। किन्तु स्वभावदृष्टि से कुछ भी नहीं दिखता है।
अथवा आपने जो कहा है--उस प्रत्यक्ष विषय का किसी भी प्रकार से अपलाप करना शक्य नहीं है, यह सब अशुद्ध नय से ही है। इसलिये परमकारुणिक जिनेन्द्रदेव को देशना दोनों नयों के आश्रित ही है।
___ यहाँ तात्पर्य यह हुआ–व्यवहारनय से जीव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त, न कि निश्चयनय से । अत: दोनों नयों के बल से परस्पर में विरुद्ध को भी अविरुद्ध करके जो श्रद्धान करते हैं, जानते हैं और मानते हैं, वे ही सम्यग्दृष्टि हैं । और जो एकांत से जीव को सिद्ध सदृश मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं, अपने तथा पर के शत्रु है, उनके मोक्षमार्गपना कभी भी सिद्ध नहीं होता है। ऐसा जानकर अत्यंत कठिन भी नयचक्र को गुरु के प्रसाद से प्राप्त कर अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र का अवलम्बन लेकर अपने शुद्ध आत्मतत्त्व का अभ्यास करना चाहिये ॥४७॥