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________________ १६० नियमसार प्राभृतम् भायः स अगाढदोषः कथ्यते । एतच्चल मलिनागाढ दोषैः रहितं यत् श्रद्धानं तत् निर्दोषं सम्यग्दर्शनमुच्यते । पूर्वोक्तकथित सम्यक्त्व लक्षण मौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकेषु त्रिष्वपि विद्यते किल्विदं लक्षणं प्राक्तनयद्वयोरं न च क्षायोपशमिके, तमे दोषाः संभयंत्यपि । उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रसिद्ध तिचक्रवतिदेवैः - "सम्मत्त वेसघाविस्सुवयाको वेदगं हवे सम्भं । चलमलिणमगाठत णिचं कम्मलवणहेदू ॥' सम्यक्त्वप्रकृतिः बेशघातिः, तस्योदयेन यत् सम्यक्त्वं तत् वेदकनाम, तत् चलमलिनागाढत्वमपि नित्यम् अंतर्मुहूर्तात् षट्षष्टिसागरपर्यंतमपि कर्म निर्जराहेतुः वर्तते । ततः स्वशुद्धात्मतत्त्वमुपावेयं तद्वयतिरिक्तं च सर्वं हेयं, हेयोपादेयतत्त्वानां अधिगमो बोधः तदेव सम्यग्ज्ञानं वर्तते । दोष कहलाता है । इन चल, मलिन, अगाढ़ दोषों से रहित जो आप्तादि का श्रद्धान करता है, वह निर्दोष सम्यग्दर्शन है । पूर्व में ५१ वीं गाथा में कहा गया सम्यक्त्व का लक्षण औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों में भी विद्यमान है, किन्तु यह ५२वीं गाथा का चल मलिन अगाढ दोष रहित लक्षण पहले के दो सम्यक्त्व में तो घटता है, क्षायोपशमिक में नहीं, चूंकि उसमें ये दोष सम्भव हैं । श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने कहा भी है सम्यक्त्व नाम की देशघाति प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है, यह चल मलिन अगाढ दोष से सहित है और नित्य ही कर्मक्षपण का कारण है । सम्यक्त्व प्रकृति देशघाति हैं, उसके उदय से जो सम्यक्त्व होता है, वह वेदक नामवाला है । यह चल, मलिन, अगाढ दोष युक्त होते हुए भी नित्य ही अर्थात् अन्तर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छयासठ सागर काल पर्यन्त भी कर्म निर्जरा हेतु है । अपना शुद्धात्मतत्व उपादेय है, उसके अतिरिक्त सब कुछ हेय है । ऐसा हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है १. गोम्मटसार, जोवकाण्ड |
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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