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________________ है। इससे यही निर्णय होता है कि ये आचार्य मंदिर, मठ, धर्मशाला, वसतिका आदि स्थानों पर हो रहते होंगे। कुछ लोग कह सकते हैं कि कुंदकुंददेव अकेले ही आचार्य थे। यह बात भी निराधार है, पहले तो वे संघ के नायक महान् आचार्य गिरनार पर्वत पर संघ सहित ही पहुंचे थे। दूसरी बात गुर्वावली' में श्री गुप्तिगुप्त भद्रबाहु आदि से लेकर १०२ आचार्यों की पट्टावली दी है। उसमें इन्हें पाँचवें पट्ट पर लिया है। यथा-१. श्री गुप्तिगुप्त, २. भद्रबाहु, ३. माघनन्दी, ४. जिनचन्द्र, ५. कुंदकुंद, ६. उमास्वामि आदि। इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया, पश्चात् इन्होंने उमास्वामि को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात नंदिसंघ की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है। यथा--'४', जिनचंद्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमास्वामि' ।' इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने स्वयं अपने 'मूलाचार्य' में माभूद में सत्तु 'एगागी' मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे' ऐसा कहकर पंचम काल में एकाको रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है। इसके आदर्श जीवन, उपदेश व आदेश से आज के आत्म हितैषियों को अपना श्रद्धान व जीवन उज्जवल बनाना चाहिए । ऐसे महान जिनधर्म प्रभावक परम्पराचार्य भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव के चरणों में मेरा शत-शत नमोऽस्तु ? -आयिका श्री शानमतीजी १. तीथंकर महावीर, पृ० ३९३ । २, वही, पृ०४४१।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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