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________________ नियमसार- प्राभृतम् जैनाः प्रात उषाकाले भगवन्तं महावीरस्वामिनं पूजयित्वा बृहन्मोदकं निर्वाणलड्डुकं समर्प्य निर्वाणकल्याणमहोत्सवं कुर्वन्ति । सायंकाले दीपावलीं प्रज्वाल्य श्री गौतमगणधरस्य केवलज्ञानलक्ष्मी गणधर देवपादपूजां च कुर्वन्ति । उक्तं च ५११ ज्वलत्प्रदीपालिका प्रवृद्धचा, सुरासुरैः बोपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समंततः, प्रवीपिताकाशतला प्रकाशते ॥ ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष मावरात्, प्रसिद्धवीपालिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्र निर्धाणविभूतिभक्तिभाक् ॥ आगमिष्यन्नूतन संवत्सराणि मह्यं सर्वसंघाय सर्वभव्येभ्यश्च मंगलप्रदानि वसुन्धरा पर सभी संप्रदाय के लोग आज के दिन दीपावली की रात्रि में दीपों को जलाकर सर्वोत्तम पर्व मनाते हैं । जैन लोग प्रभात के उषाकाल में भगवान् महावीरस्वामी की पूजा करके निर्वाणलाडू नाम से बड़ा सा लाडू चढ़ाकर निर्वाणकल्याणक महोत्सव करते हैं । पुनः सायंकाल में दीपों की पंक्तियाँ जलाकर श्री गौतम गणधर देव की केवल ज्ञानलक्ष्मी की और गणधरदेव के चरणकमलों की पूजा करते हैं । कहा भी है "उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा । उस समय से लेकर भगवान् के निर्वाणकल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरत क्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान् महावीर की पूजा करने को उद्यत रहने लगे और उन्हों की स्मृति में दीपावली का उत्सव मनाने लगे ।" आगे आने वाले नये वर्ष मेरे लिये, सर्व संघ के लिये और सर्व भव्यों के लिये मंगलदायी होवें । भगवान् महावीर स्वामी के पादकमल के प्रसाद से मुझे भी ऐसी सिद्धपद प्राप्त कराने में समर्थ शक्ति प्राप्त होवे । भावार्थ - इस गाथा की टीका लिखते समय मुक्तिगमन का वर्णन चल रहा था। उसी दिन भगवान् महावीर के निर्वाणकल्याणक को पूजा हुई थी, अतः १. हरिवंशपुराण ६६ सर्ग |
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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